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संबोधि
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अ. १४ : गृहस्थ-धर्म-प्रबोधन
' वस्तुओं का संग्रह आसक्ति से होता है। आसक्त व्यक्ति बाहर से स्वयं को भरने का यत्न करता है। अनासक्त भीतर के रस से आप्लावित होता है। वह बाहर से भरने में कोई सार नहीं देखता। वस्तुओं के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण नहीं रहता। वह देखता है-पदार्थ पदार्थ हैं। इनकी उपयोगिता बाहर के लिए है, भीतर के लिए नहीं। ध्रुवीय प्रदेशों में एक एस्किमों परिवार है। धार्मिकों को भी उनसे बहुत कुछ सीखने जैसा है। एक फ्रेंच यात्री पहली बार गया। उसने लिखा है-मैंने उनसे ज्यादा सम्पन्न व्यक्ति नहीं देखे। वह उनके रीति-रिवाजों से अपरिचित था। जिस घर में वह ठहरा था, उसने वहां देखा, जूते बड़े सुन्दर हैं। मन प्रसन्न हो गया। उसने कहा-जूते सुन्दर हैं। तत्काल वे उसे दे दिए। उनके पास दूसरा जोड़ा नहीं था। और भी कोई सुन्दर चीज देखी और उसने कहा, वैसे ही चीज उसे मिल गई। उसने सोचा वह क्या बात है ? घर में एक वृद्ध सज्जन थे। उसने पूछा क्या बात है? वृद्ध ने जो कहा, वह बहुत गहरे धर्म की बात है
'चीजें-चीजें हैं वे किसी की नहीं। जिनके पास हैं उनके लिए अब व्यर्थ हो गई हैं, कोई आकर्षण नहीं रहा, किन्तु जिसके पास नहीं हैं वह सम्मोहित हो रहा है, लेने को ललचा रहा है। यदि उसे नहीं मिलेगी तो सम्मोहन-आकर्षण टूटेगा नहीं।
'जो चीज हमारी है हम मालिक हैं तो उसकी मालकियत तभी है जब किसी को दे देते हैं, अन्यथा उसके गुलाम होते हैं।' वर्ष भर में एक दिन आता है जिस दिन सभी घरों में अनावश्यक और आवश्यक वस्तुओं की छंटनी कर दी जाती है और फिर अनावश्यक लाते ही नहीं।
मेघः प्राह
११.अगारिणां कथं धर्मो, व्यापतानाञ्च कर्मस।
गृहिणां यदि धर्मः स्यादगारो हि को भवेत्॥
मेघ बोला-भंते! गृहस्थी में लगे हए गृहस्थों में धर्म कैसे हो सकता है? यदि गृहस्थ भी धर्म के अधिकारी हों तो फिर साधु कौन बनेगा?
भगवान् प्राह १२.सत्यं देवानुप्रियैतद्, मुमुक्षा यस्य नोत्कटा।
स वृत्तिमनगाराणां, न नाम प्रतिपद्यते॥
भगवान् ने कहा-देवानुप्रिय! यह सच है कि जिसमें मुक्त होने की प्रबल इच्छा नहीं है, वह मुनि-धर्म को स्वीकार नहीं करता।
१३. मुमुक्षा यावती यस्य, समतां तावतीं श्रितः। : आचरति गृही धर्म, व्यापृतोऽपि च कर्मसु॥
जिस गृहस्थ में मुक्त होने की जितनी भावना होती है, वह उतनी ही मात्रा में समता का आचरण करता है और जितनी मात्रा में समता का आचरण करता है, उतनी ही मात्रा में धर्म का आचरण करता है। इस प्रकार वह गृहस्थ के कार्यों में लगा रहने पर भी धर्म की आराधना करने का अधिकारी है।
॥ व्याख्या ॥ मुनि वही हो सकता है, जो संसार से उद्विग्न है, जिसमें आत्म-हित की उत्कृष्ट अभिलाषा है। भोग का वियोग देखने वाला व्यक्ति ही योग का अनुसरण कर सकता है। संवेग (मुक्ति-अभिलाषा) और निर्वेद (भव-विरक्ति) ही व्यक्ति को मुनि बना सकती है। इन दोनों की अपूर्णता में मुनि-जीवन संभव नहीं होता।
किन्तु इससे हम संवेग और निर्वेद की आंशिकता का निषेध नहीं कर सकते। गृहस्थ में भी विचारों की तरतमता देखी जाती है। कुछ व्यक्ति गीता की दृष्टि में तमोगुणी होते हैं, कुछ रजोगुणी और कुछ सतोगुणी। सतोगुणी व्यक्ति सद्ज्ञान प्रधान होते हैं। वे कर्तव्य-अकर्तव्य के बीच विवेक कर सकते हैं। रजोगुणी व्यक्तियों में लोभ, इच्छा, भोग आदि