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________________ आत्मा का दर्शन ३४२ खण्ड - ३ की प्रधानता होती है तमोगुणी अज्ञान और मूढ़ता से आच्छन्न रहते हैं ये व्यक्ति उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। विचारों की इस विविधता को हम धर्म और अधर्म के शब्दों में बांधे तो राजसिक और तामसिक गुण अधर्म है और सात्विक गुण धर्म है सरलता, समता, सद्भावना, सहिष्णुता, मनःशौच आदि गुणधर्म है जिन व्यक्तियों को इनका पूर्ण साक्षात्कार हो जाता है वे गुणातीत दशा को पा लेते हैं। लेकिन अभ्यासकाल में इन गुणों के आधार पर ही वे धार्मिक होते हैं। गृहस्थ भी समता, संवेग आदि भावों से धार्मिक हैं। जितने अंशों में इनका विकास है वह उतने ही अंशों में धार्मिक भी है। १४. द्विविधं विद्यते वीर्य, लब्धिश्च करणं तथा । अन्तरायक्षवाल्लब्धिः करणं वपुषाश्रितम् ॥ १५. वपुष्मतो भवेद् वाणी, मनोऽप्यस्यैव जायते । शारीरिकं वाचिकञ्च मानसं तत्' त्रिधा भवेत् ॥ १६. योगः कर्म प्रवृत्तिर्वा, व्यापारः करणं क्रिया । एकार्थका भवन्त्येते, शब्दाः कर्माभिधायकाः ॥ कर्म विद्यते । ततः सतोऽपि जायते ॥ १७. सदसतो प्रभेदेन द्विविधं निवृत्तिरसतः पूर्व || व्याख्या || धर्म का अभ्यास शक्ति पर निर्भर रहता हैं। शक्ति के दो रूप है-लब्धि वीर्य और करणवीर्य धर्म का संबंध केवल शारीरिक शक्ति से ही नहीं है। शारीरिक शक्ति से सम्पन्न होते हुए भी अनेक व्यक्ति हिंसा, झूठ, कुकृत्य आदि कर्मों में संलग्न रहते हैं। इसके विपरीत शरीर बल से क्षीण व्यक्ति अहिंसा, अभय, आत्म दमन आदि क्रियाओं में सावधान देखे जाते हैं। वे लब्धि-वीर्य से सम्पन्न हैं। आत्म-शक्ति को आवृत करने वाली कर्म-वर्गणाएं जब सक्रिय होती हैं, तब व्यक्ति का सामर्थ्य व्यक्त नहीं होता। उसका मन आत्मोन्मुख न होकर बहिर्मुख होता है। वह आत्म जागरण में स्वशक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता। करणवीर्य शरीर के माध्यम से व्यक्त होता है। १८. निरोधः कर्मणां पूर्ण कर्तुं शक्यो न देहिभिः । विनिवृत्ते शरीरेऽस्मिन् स्वयं कर्म निवर्तते ।। वीर्य के दो प्रकार हैं- लब्धिवीर्य योग्यतात्मक शक्ति और करणवीर्य - क्रियात्मक शक्ति । अंतराय के दूर होने पर लब्धि का विकास होता है और शरीर के माध्यम से करण का प्रयोग होता है। १९. विद्यमाने शरीरेऽस्मिन् सततं कर्म जायते । निवृत्तिरसतः कार्या प्रवृत्तिश्च सतस्तथा ॥ १. तत् इति करणवीर्यम् । जिसके शरीर होता है उसी के वाणी और मन होते हैं। इसलिए करणवीर्य तीन प्रकार का होता है शारीरिक, वाचिक और मानसिक योग, कर्म, प्रवृत्ति, व्यापार, करण और क्रिया-ये कर्म के पर्यायवाची शब्द हैं। कर्म के दो प्रकार हैं-सत् और असत् । साधना के प्रारंभ में असत्कर्म की निवृत्ति होती है और जब साधना अपने चरम रूप में पहुंचती है तब सत्कर्म की भी निवृत्ति हो जाती है। जब तक शरीर रहता है तब तक देहधारी जीव कर्म-क्रिया. का पूर्ण रूप से निरोध नहीं कर सकते शरीर के निवृत्त होने पर कर्म अपने आप निवृत्त हो जाता है। जब तक शरीर विद्यमान रहता है, तब तक निरंतर कर्म होता रहता है। इस दशा में असत्कर्म की निवृत्ति और सत्कर्म की प्रवृत्ति करनी चाहिए।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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