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प्रायोगिक दर्शन
अ.१२ : आत्मवाद
पइण्णा, जहा-तज्जीवो तं शरीरं, णो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं।
हवाभरी मशक और खाली मशक २५.तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी- प्रदेशी! क्या तुमने कभी मशक को हवा से भरा है
अस्थि णं पएसी! तुमे कयाइ वत्थी धंतपुव्वे वा अथवा किसी से भरवाया है ? धमावियपुव्वे वा? हंता अत्थि।
हां, भंते! अत्थि णं. पएसी! तस्स वत्थिस्स पुण्णस्स वा प्रदेशी! क्या हवा भरी मशक और खाली मशक के तुलियस्स, अपुण्णस्स वा तुलियस्स केइ..... तोल में कोई अंतर होता है? गरुयत्ते वा लहुयत्ते वा? -
णो तिणठे समठे। एवामेव पएसी! जीवस्स अगरुलघुयत्तं पडुच्च प्रदेशी ! इसी तरह जीव भी अगुरुलघु-न भारी होता जीवंतस्स वा तुलियस्स, मुयस्स वा तुलियस्स है और न हलका। इसी अगुरुलघुता की अपेक्षा उसके नत्थि केइ......गुरुयत्ते वा लहुयत्ते वा, तं सहहाहि जीवित और मृत अवस्था के तोल में कोई गुरुता और णं तुमं पएसी! जहा-अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो लघुता नहीं होती है। अतः तुम यह श्रद्धा करो-जीव अन्य तज्जीवो तं सरीरं।
है, शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है।
नहीं।
२६. तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं
वयासी-अस्थि णं भंते! एस पण्णओ उवमा, इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ।
भंते! यह आपकी प्रज्ञापना है। पर एक कारण है, इसलिए मैं आपके इस कथन से सहमत नहीं है।
२७.एवं खलु भंते! अहं अण्णया कयाइ बाहिरियाए .. उवट्ठाणसालाए..... विहरामि। तए णं ममं
णगरगुत्तिया.... चोरं उवणेति। तए णं अहं तं पुरिसं सव्वतो समंता समभिलोएमि। नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि। तए णं अहं तं पुरिसं दुहा फालियं करेमि, करेत्ता सव्वतो समंता समभिलोएमि। नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि। एवं तिहा चउहा संखेज्जहा फालियं करेमि, करेत्ता सव्वतो समंता समभिलोएमि। णो चेव णं तत्थ जीवं पासामि। . जइणं भंते! अहं तंसि पुरिसंसि, दुहा वा तिहा वा चउहा वा संखेज्जहा वा फालियंमि जीवं पासंतो, तो णं अहं सहहेज्जा, पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा- अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं। जम्हा णं भंते! अहं तंसि दुहा वा तिहा वा चउहा
भंते! एक दिन मैं बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था। नगररक्षक मेरे सामने चोर को लेकर उपस्थित हए। मैंने चोर को चारों ओर से भलीभांति देखा-उसमें जीव है या नहीं? पर मुझे उसमें कहीं भी जीव दिखाई नहीं दिया। मैंने चोर के दो टुकड़े कर उसे भलीभांति देखा। पर मुझे जीव दिखाई नहीं दिया। मैंने उसके तीन-चार पांच यावत् संख्यात टुकड़े कर दिए फिर भी मुझे कहीं जीव दिखाई नहीं दिया। .
भंते! यदि कहीं जीव का निशान भी मिल जाता तो मैं यह श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता-जीव अन्य है शरीर अन्य है। जीव और शरीर एक नहीं है।
भंते! चोर के टुकड़े-टुकड़े कर देने पर भी मुझे जीव