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________________ आत्मा का दर्शन वा संखेज्जहा वा फालियंमि जीवं न पासामि तम्हा सुपतिट्ठिया मे पइण्णा, जहा - तज्जीवो तं सरीरं, नो अण्णो जीवो अण्णं सरीरं । ५९० मूढ लकडहारा २८. तणं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीमूढतराए णं तुमं पएसी ! ताओ तुच्छतराओ । के णं भंते! तुच्छतराए ? पएसी ! से जहाणामए - केइ पुरिसा वणत्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोई च जोइभायणं च गहाय कट्ठाणं अडविं अणुपविट्ठा। तए णं ते पुरिसा तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ता समाणा एवं पुरिसं एवं वयासी - अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं अडविं पविसामो । एत्तो णं तुमं जोइभायणाओ जोई गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि । अह तं जोइभायणे जोई विज्झवेज्जा, तो णं तुमं कट्ठाओ जोई गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि त्ति कट्टु कट्ठाणं अडविं अणुपविट्ठा । तणं से पुरसे तओ मुहुत्तंतरस्स तेसिं पुरिसाणं असणं साहेमि त्ति कट्टु जेणेव जोतिभायणे तेणेव उवागच्छइ । जोइभायणे जोइं विज्झायमेव पासति । तणं से पुरिसे जेणेव से कट्ठे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं कट्ठ सव्वओ समंता समभिलोएति । नो चेव णं तत्थ जोइं पासति । तणं से पुरिसे परियरं बंधइ, फरसुं गेण्हइ, तं कट्ठे दुहा फालियं करेइ, सव्वतो समंता समभिलोएइ | णो चेव णं तत्थ जोइं पासइ । एवं तिहा चउहा संखेज्जहा वा फालियं करेइ, सव्वतो समंता समभिलोएइ। नो चेव णं तत्थ जोइं पासइ । तए णं से पुरिसे तंसि कट्ठसि ..... जोइं अपासमाणे संते तंते परिस्संते निव्विण्णे समाणे परसुं एगंते एडेइ, परियरं मुयइ, मुइत्ता एवं वयासी अहो ! म तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिए त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपविट्ठे खण्ड - ४ कहीं दिखाई नहीं दिया इसलिए मेरा पक्ष स्थापित हैजीव और शरीर एक है। प्रदेशी ! तुम उस लकड़हारे से भी अधिक मूढ़ और तुच्छ बुद्धिवाले प्रतीत होते हो । भंते! मूढ़ और तुच्छ बुद्धिवाला वह लकड़हारा कौन था ? प्रदेशी ! कुछ वनोपजीवी व्यक्ति लकड़ियों की खोज में निकले। वे अग्नि और अग्निपात्र अपने साथ ले गए। चलते-चलते वे काष्ठवन में प्रविष्ट हुए। यातायात रहित गहन जंगल में पहुंच उन्होंने अपने एक साथी से कहादेवानुप्रिय ! हम काष्ठ वन में जा रहे हैं। तुम अग्निपात्र में से अग्नि निकालकर भोजन तैयार करना । यदि अग्नि बुझ गई हो तो अरणि-काष्ठ से अग्नि पैदा कर भोजन तैयार कर लेना। ऐसा कह वे लकड़ियां लाने जंगल में चल गए। कुछ समय बाद वह व्यक्ति भोजन बनाने के लिए उठा। अग्नि पात्र के पास आया और देखा अग्नि बुझी हुई है। वह अरणि काष्ठ के पास आया। काष्ठ को हाथ में लेकर चारों ओर से भलीभांति देखा पर कहीं भी अग्नि दिखाई नहीं दी। उसने कमर कसी । हाथ में फरसी ली । काठ के दो टुकड़े किए। पुनः चारों ओर देखा । पर कहीं अग्नि दिखाई नहीं दी। यहां तक कि उसके टुकड़े-टुकड़े कर देने पर भी कहीं अग्नि का निशान नहीं मिला। अरणि काष्ठ में अग्नि नहीं मिलने से वह श्रांत, क्लांत और उदास गया। फरसी को एक ओर रख कमर खोली और मन ही मन कहा अहो ! मैं उन व्यक्तियों के लिए भोजन तैयार नहीं कर सका। वह थका-हारा-सा शोक सागर में निमज्जित,
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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