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________________ प्रायोगिक दर्शन ५९१ अ. १२ : आत्मवाद करयल-पल्लत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगय. हथेली पर मुंह को टिका, उदासीन और चिंतातुर मुद्रा में दिदिठए झियाइ। दृष्टि को भूमि पर गड़ाकर बैठ गया। तए णं ते पुरिसा कट्ठाई छिंदति। जेणेव से पुरिसे वे पुरुष जंगल से लकड़ी काटकर आए। उन्होंने उसे तेणेव उवागच्छंति, तं पुरिसं ओहयमणसंकप्पं..... चिंतातुर देख पूछा-देवानुप्रिय! तुम उदास क्यों हो? पासंति, पासित्ता एवं वयासी-किं णं तुम देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पे.....झियायसि? तए णं से पुरिसे एवं वयासी-तुब्भे णं उसने कहा-देवानुप्रिय! काष्ठवन में जाते समय आप देवाणुप्पिया! कट्ठाणं अडविं अणुपविसमाणा ममं लोगों ने मुझे कहा-देवानुप्रिय! हम काष्ठ वन में जा रहे एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया! कट्ठाणं अडविं हैं। तुम इस अग्निपात्र से अग्नि निकालकर भोजन तैयार पविसामो। एत्तो णे तुमं जोइभायणाओ जोइं गहाय कर लेना। यदि अग्निपात्र में अग्नि बुझ जाए तो तुम अम्हं असणं साहेज्जासि। अह तं जोइभायणे जोई काष्ठ से अग्नि जलाकर हमारे लिए भोजन तैयार कर विझवेज्जा तो णं तुम कट्ठाओ जोई गहाय अम्हं देना। असणं साहेज्जासित्ति कटु कट्ठाणं अडविं अणुपविट्ठा। तए णं अहं तओ मुहुत्तंतरस्स तुब्भं असणं साहेमि आपके चले जाने पर थोड़ी देर बाद मैं भोजन बनाने त्ति कद जेणेव जोइभायणे तेणेव उवागच्छामि के लिए उठा। अग्निपात्र को संभाला यावत् अग्नि पैदा न जाव झियामि। कर सकने के कारण शोकाकुल हो गया। तए णं तेसिं पुरिसाणं एगे पुरिसे छेए दक्खे.....ते उन व्यक्तियों में से एक दक्ष, कुशल और बुद्धिमान पुरिसे एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! पुरुष बोला-तुम सब स्नान आदि करो। मैं भोजन तैयार व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता कर देता हूं। यह कहकर उसने कमर बांधी। फरसी हाथ में हव्वमागच्छेह जा णं अहं असणं साहेमित्ति कटु ली और उस लकड़ी से ही काठ का घर्षण करने के लिए परियरं बंधइ, परसुं गिण्हइ, सरं करेइ, सरेण एक बाण तैयार किया। उससे काठ को मथा। अग्नि पैदा अरणिं महेइ, जोइं पाडेइ, जोइं संधुक्खेइ, तेसिं की। उसे सुलगाया और भोजन तैयार किया। पुरिसाणं असणं साहेइ। तए णं तें पुरिसा पहाया कयबलिकम्मा वे पुरुष नहा-धोकर भोजन करने के लिए आए। कयकोउयमंगल-पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव भोजन बनानेवाले व्यक्ति ने उन्हें अच्छी तरह आसन पर उवागच्छंति। तए णं से पुरिसे तेसिं पुरिसाणं बिठाकर भोजन परोसा। सुहासणवरगयाणं तं विउलं असणं पाणं खाइम साइमं उवणेइ। तए णं ते पुरिसा.....जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं भोजन करने के बाद उन्होंने हाथ-मुंह धोया और उस समाणा आयंता चोक्खा परमसुईभूया तं पुरिसं एवं व्यक्ति को बुलाकर कहा-तुम जड़, मूढ़ हो जो काठ के वयासी-अहो! णं तुम देवाणुप्पिया! जड्डे मूढे जे __टुकड़े-टुकड़े कर अग्नि को खोज रहे हो। णं तम इच्छसि कटठंसि.....संखेन्जहा फालियंसि वा जोतिं पासित्तए। से एएणठेणं पएसी! एवं वुच्चइ मूढतराए णं तुमं प्रदेशी ! तुम उस पुरुष से भी मूढ़ और मन्दमति पएसी! ताओ तुच्छतराओ। वाले हो।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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