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प्रायोगिक दर्शन
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अ.१०: वीतराग साधना
यह बात सुनते ही भद्रा सार्थवाही कुपित हो उठी। सार्थवाह धन के प्रति उसके मन में प्रगाढ़ द्वेष का भाव जाग गया।
कुछ समय पश्चात् सार्थवाह धन ने अर्थबल से अपने आपको राजदंड से मुक्त करवा लिया। बंदीगृह से निकल वह अपने घर आया।
अपनी पत्नी भद्रा के पास पहुंचा।
असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही पंथगस्स दासचेडगस्स 'अंतिए एयमझें सोच्चा आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणी धणस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ। तए णं से धणे सत्थवाहे अण्णया कयाई..... अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ, मोयावेत्ता चारगसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता.....जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ। तए णं से धणे सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ। तए णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ नो परिजाणइ। अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठइ। तए णं से धणे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासी- किण्णं तज्झं देवाणप्पिए! न तटठी वा न हरिसो वा नाणंदो वा, जं मए सएणं अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पा विमोइए। तए णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एवं वयासी-कहं णं देवाणुप्पिया! मम तुट्ठी वा हरिसो वा आणंदो वा भविस्सइ? जेणं तुम मम पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडणीयस्स प्रच्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असण-पाणखाइम-साइमाओ संविभागं करेसि। तए णं से धणे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासीनो खलु देवाणुप्पिए! धम्मो त्ति वा तवोत्ति वा कय-पडिकया इ वा लोगजत्ता इ वा नायए इ वा पाडियए इ वा सहाए इ वा सुहि त्ति वा विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण-पाण-खाइमसाइमामो संविभागे कए। नण्णत्थ सरीरचिंताए।' तए णं सा भहा....खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छित्ता हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल- पायच्छित्ता विपुलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणी
भद्रा ने सार्थवाह धन को आते देखा, पर उसने न प्रसन्नता व्यक्त की और न उसे आदर दिया। वह पीठ फेर, मौन होकर बैठ गई।
सार्थवाह धन ने पत्नी भद्रा से पूछा-देवानुप्रिये! क्या बात है? आज तझे न खशी है, न हर्ष है, और न आनंद है, जबकि मैं कारावास से मुक्त होकर आया हूं।
भद्रा ने कहा-देवानुप्रिय! मुझे खुशी, हर्ष और आनंद कैसे होगा। आप मेरे पुत्र के हत्यारे, बैरी, अमित्र विजय तस्कर को भोजन का संविभाग देते थे।
सार्थवाह धन ने पत्नी से कहा-देवानप्रिय! मैंने विजय तस्कर को धर्म, तप, प्रत्युपकार और लोकयात्रा की दृष्टि से अथवा उसे अपना ज्ञाती, सहचारी, सखा या सुहृद मानकर भोजन का संविभाग नहीं दिया। केवल शरीर चिंता के लिए उसे संविभाग देना पड़ा।
तब भद्रा ने कुशलक्षेम पूछा और पूर्ववत् दिनचर्या में संलग्न हो गई।
जा गं जंबू! धणेण सत्थवाहेणं नो धम्मो त्ति वा तवो ति वा कयपडिकया इ वा लोगजत्ता इ वा
जम्बू! जैसे सार्थवाह धन ने विजय तस्कर को न तो धर्म, तप, प्रत्युपकार और लोकयात्रा की दृष्टि से भोजन