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________________ आत्मा का दर्शन ५६४ खण्ड-४ नायए इ वा घाडियए इ वा सहाए इ वा सुहित्ति वा का संविभाग दिया और न ही उसे ज्ञाती, सहचारी, विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण- सहायक और सुहृद मानकर भोजन का संविभाग दिया। पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए। नण्णत्थ केवल शरीर संरक्षण के लिए उसे संविभाग दिया। सरीरसारक्खणट्ठाए। एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथे वा निग्गंथी वा जम्बू! इसी प्रकार जिनशासन में प्रव्रजित निग्रंथ आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंड़े भवित्ता अगाराओ अथवा निग्रंथी आचार्य-उपाध्याय के पास मुंड हो, साधुत्व अणगारियं पव्वइए समाणे ववगयण्हाणुमहण- स्वीकार कर स्नान, मर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-विभूसे इमस्स ओरालिय- और विभूषा से उपरत रहता है, वह इस औदारिक शरीर सरीरस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं के वर्ण, रूप, बल और विषयपूर्ति के लिए भोजन नहीं वा नो विसयहेउं वा तं विपुलं असणं पाणं खाइमं करता। केवल ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अनुपालना के . साइमं आहारमाहारेइ। नण्णत्थ नाणदंसणचरित्ताणं लिए भोजन करता है। वहणट्टयाए। अनासक्त योग ७. उबलेवो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई। भोगों में उपलेप होता है। अभोगी व्यक्ति लिप्त नहीं भोगी भमइ संसारे अभोगी विप्पमुच्चई। होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है। अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है। ८. उल्लो सुक्को य दो छूढा गोलया मटियामया। दो वि आवडिया कुड्डे जो उल्लो सो तत्थ लग्गई। मिट्टी के दो गोले हैं-एक गीला और दूसरा सूखा। दोनों भींत पर फेंके गए। जो गीला था वह चिपक गया। जो सूखा था, वह स्पृष्ट होकर नीचे गिर गया। ९. एवं लग्गति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा।। विरत्ता उ न लग्गंति जहा सुक्को उ गोलओ॥ इसी प्रकार काम-भोगों में आसक्त दुर्मेध मनुष्य विषयों से चिपट जाते हैं। विरक्त मनुष्य सूखे गोले की तरह अस्पृष्ट रहते हैं। १०.भावे विरत्तो मणुओ विसोगो ___ एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त होता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहता हुआ दुःख परंपरा से लिप्त नहीं होता है। इस प्रकार इन्द्रिय और मन के विषय रागी मनुष्य के लिए दुःख के हेतु बनते हैं। वीतराग के लिए वे कमी किंचित भी दुःखदायी नहीं होते हैं। ११.एविंदियत्था य मणस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेंति किंचि॥ १२.न कामभोगा समयं उर्वति न यावि भोगा विगई उति। जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवे॥ कामभोग अपने आप में न समता के हेतु हैं और न विकार के हेतु हैं। जो पुरुष उनके प्रति द्वेष या राग करता है, वह तद्-विषयक मोह के कारण विकार को प्राप्त होता है। .
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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