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प्रायोगिक दर्शन
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अ. १० : वीतराग साधना १३.एवं ससंकप्पविकप्पणासो
समता में उपस्थित व्यक्ति के संकल्प और विकल्प संजायई समयमुवट्ठियस्स। का नाश हो जाता है। जब वह अर्थों-विषयों का संकल्प अत्थे असंकप्पयओ तओ से
नहीं करता है तो उसकी काम विषयों में होने वाली तृष्णा पहीयए कामगुणेसु तण्हा॥ भी क्षीण हो जाती है।
१४.ण सक्का ण सोउं सहा
सोयविसयमागता।
श्रोत्रेन्द्रिय में आने वाले शब्द न सुने, यह शक्य नहीं है। किन्तु उनमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष का वर्जन करे।
रागदोसा उ जे तत्थ .
ते भिक्खू परिवज्जए॥
१५.णो सक्का रूवमदहें चक्खविसयमागयं।
रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥
चक्षु इन्द्रिय के सामने आने वाले रूप न देखे, यह शक्य नहीं है। किन्तु राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उनके प्रति होने वाले राग द्वेष का वर्जन करे।
१६.णो सक्का ण गंधमग्घाउं
णासाविसयमागयं।
घ्राणेन्द्रिय में आनेवाली गंध का आघ्राण न करे, यह शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले राग-द्वेष का
रागदोसा उजे तत्थ
ते भिक्खू परिवज्जए॥
१७.णो सक्का रसमणासाउं जीहाविसयमागयं।
रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए।
रसनेन्द्रिय द्वारा चखे जानेवाले रस का आस्वाद न ले, यह शक्य नहीं है। किंतु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले रागद्वेष का वर्जन करे।
१८.णो सक्का ण संवेदेउं फासविसयमागयं। . रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्ख परिवज्जए॥
स्पर्शनेन्द्रिय से स्पृष्ट होनेवाली वस्तु का संस्पर्श न करे, यह शक्य नहीं है। किन्तु उसमें राग-द्वेष न करे, यह शक्य है। अतः संयमी पुरुष उसके प्रति होने वाले रागद्वेष का वर्जन करे।
१९.वत्थगन्धमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य।
अच्छंदा जे न भुंजंति न से चाइ त्ति वुच्चइ॥
जो परवश-अभावग्रस्त होने के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शयन और आसन का उपभोग नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहलाता।
२०.जे य कंते पिए भोए लद्धे विपिट्ठि कुव्वई।
साहीणे चयइ भोए से ह चाइ त्ति वुच्चई।
त्यागी वही कहलाता है जो कांत और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर से पीठ फेर लेता है, स्वेच्छा से उनका परित्याग करता है।