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________________ संबोधि . २१३ अ.७: आज्ञावाद कषायों का उपशमन और क्षय करो। इन्द्रिय और मन पर अनुशासन करो। * संयम का विकास करो। अहिंसा की परिधि में रहो। आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का चिंतन करो। भेद-दृष्टि से शास्ता और शास्त्र दो हैं और अभेददृष्टि से एक। आज्ञा का अनुसरण वीतराग का अनुसरण है और वीतराग का अनुसरण आज्ञा का अनुसरण है। 'मामेकं शरणं व्रज'-एक मेरी शरण में आ-गीता के इस वाक्य की भी यही ध्वनि है। भगवान् कहते हैं-आज्ञा की कसौटी पर खरा उतरने वाला ही मेरा धर्म है और मेरा तप है। यह अभेदोपचार है। आग्रह के दो रूप हैं-सत्य और मिथ्या। मिथ्या आग्रह बौद्धिक जड़ता है। मिथ्या आग्रही अपनी मान्यता के घेरे से मुक्त नहीं हो सकता। 'मेरा धर्म है वही सत्य है'-मिथ्या आग्रही व्यक्ति में इसकी अधिकता होती है। वह अपना ही राग आलापता है। सत्याग्राही में यह नहीं होता। वह नम्र होता है, सरल होता है, सत्य को देखता है, सुनता है, मस्तिष्क से तोलता है और सत्य को स्वीकार करता है। आत्मा का सान्निध्य उसे प्राप्त होता है। वह आग्रही नहीं होता। उसका घोष होता है-जो सत्य है वह मेरा है। २. वीतरागेण यद् दृष्टं उपदिष्टं समर्थितम्। वीतराग ने जो देखा, जिसका उपदेश किया और जिसका _. आज्ञा सा प्रोच्यते बुद्धैः, भव्यानामात्मसिद्धये॥ समर्थन किया, वह आज्ञा है-ऐसा तत्त्वज्ञ पुरुषों ने कहा है। आज्ञा भव्य जीवों की आत्मसिद्धि का हेत है। - ॥ व्याख्या ॥ - आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में भव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है-जो यह सोचता है कि मेरे लिए क्या सो दःख से बहत घबराता है. जो सख का गवेषक है. जो बद्धि के गणों से सम्पन्न है. जो श्रवण और चिंतन करता है, जो अनाग्रही होता है, जो धर्म-प्रिय होता है और जो शासन के योग्य होता है, वह भव्य है। जो भव्य होता है वही आत्म-साक्षात्कार कर सकता है। ३. तदेव सत्यं निःशङ्ख, यज्जिनेन प्रवेदितम्। जो जिन-वीतराग ने कहा, वही सत्य और असंदिग्ध है। रागद्वेषविजेतृत्वाद, नान्यथा वादिनो जिनाः॥ वीतराग ने राग और द्वेष को जीत लिया इसलिए वे मिथ्यावादी नहीं होते, अयथार्थ निरूपण नहीं करते। ॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में सत्य की सुन्दरतम परिभाषा दी गई है। सत्य क्या है इसका स्वरूप-निर्णय पदार्थ के स्वरूप से नहीं हो सकता। वह वक्ता की. निष्कषाय वृत्ति से होता है। ‘सत्य वही है जो वीतराग द्वारा कथित है' यह परिभाषा सार्वजनिक है। इस परिभाषा को समझने के लिए वीतराग के स्वरूप को जानना आवश्यक होता है। वीतराग वह है जिसके चारों कषाय और मोह का आवरण नष्ट हो चुका है। ... अयथार्थ भाषण के हेतु हैं-राग, द्वेष और मोह। जिनका लक्ष्य आत्महित है, जो निःस्वार्थ हैं, वीतराग हैं और कृतकृत्य हैं, वे कभी अयथार्थ भाषण नहीं करते। परंपरा और मान्यता के मोह से मूढ़ व्यक्ति अयथार्थ भाषण भी करते हैं। उनमें अपनी प्रतिष्ठा और कीर्ति का मोह होता है। उन बाह्य उपाधियों से मूढ़ व्यक्ति अयथार्थ भाषणों और आचरणों में संलग्न हो जाते हैं। लेकिन जो यह मानते हैं कि मेरा उत्थान इनसे नहीं, स्व-आत्मा से है, वे प्राणों का बलिदान करके भी सत्य की रक्षा करते हैं। आयामरतियोगिन! अनाज्ञायां रतिस्तथा। हे योगिन! आज्ञा में तेरी अरति-अप्रसन्नता और अनाज्ञा में मा भूयात्ते क्वचिद् यस्माद, आज्ञाहीनो विषीदति॥ रति-प्रसन्नता कहीं भी न हो. क्योंकि आज्ञा-हीन साधक अंत में विषाद को प्राप्त होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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