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उद्भव और विकास
अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन
२९. मा कुण वियत्त! संसय
मसत्ति ण संसयसमुब्भवो जुत्तो। - खकुसुम-खरसिंगेसु व
जुत्तो सो थाणु-परिसेसु॥
व्यक्त! तुम ऐसा संशय मत करो। पदार्थ का अस्तित्व नहीं है तो संशय उत्पन्न ही नहीं होगा। आकाश-कुसुम और गधे के सींग के विषय में क्या कभी संशय होता है? यह स्तंभ है या पुरुष ?-ऐसा संशय हो सकता है, क्योंकि स्तंभ और पुरुष दोनों का अस्तित्व है।
३०. को वा विसेसहेतू
सव्वाभावे वि थाणु-पुरिसेसु। संका ण खपुप्फादिसु
विवज्जयो वा कधचण्ण भवे॥
ऐसा कौन-सा विशेष हेतु है जिसके कारण सब पदार्थों का अभाव होने पर भी स्तंभ और पुरुष के विषय में संदेह होता है, आकश-कुसुम और गधे के सींग के विषय में नहीं होता, इससे स्पष्ट है कि आकाश-कुसुम की भांति सब कुछ शून्य नहीं है।
३१. छिण्णम्मि संसयम्मी।
जिणेणं जरामरणविप्पमुक्केणं। सो समणो पव्वइतो
पंचहिं सह खंडियसतेहिं॥
जरा और मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पंडित व्यक्त का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार की।
गणधर सुधर्मा ३२. ते पव्वइते सोतुं सुधम्मो आगच्छती जिणसगासं। इन्द्रभूति आदि प्रवृजित हो गए, यह सुनकर पंडित वच्चामि णं वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि॥ . सुधर्मा ने सोचा-मैं भी महावीर के पास जाऊं। वंदना
करूं और उनकी पर्युपासना करूं।
३३. आभट्ठो य जिणेणंजाति-जरा-मरणविप्पमुक्केणं। - णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥
जन्म, जरा और मुत्यु से मुक्त सर्वज्ञ और सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा
३४. किं मण्णे जारिसो इध भवम्मि
सो तारिसो परभवे वि।
सुधर्मा! तुम्हारा मानना है कि जीव जैसा इस भव में होता है वैसा ही पर भव में होता है।
३५. कारणसरिसं कज्जं बीयस्सेवंकरो त्ति मण्णंतो।
इध भवसरिसं सव्वं जमवेसि परे वि तदजुत्तं॥
तुम यह मानते हो कि कारण जैसा ही कार्य होता है जैसा बीज वैसा अंकुर। इसी प्रकार इस जन्म जैसा ही अगला जन्म होता है, किन्तु तुम्हारा यह मत संगत नहीं है।
३६. जाति सरो संगातो
भूतणओ सरिसवाणुलित्तातो। संजायति गोलोमा
ऽविलोमसंजोगतो दुव्वा॥
सींग के सर वनस्पति उत्पन्न होती है। उस वनस्पति पर यदि सरसों का लेप कर दिया जाए तो उससे भूतृण-एक प्रकार की घास उत्पन्न होती है। गाय एवं बकरी के बालों से दूब उत्पन्न होती है।