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________________ खण्ड-२ आत्मा का दर्शन ३७. इति रुक्खायुव्वेते ___ जोणिविधाणे य विसरिसेहितो। दीसति जम्हा जम्म सुधम्म! तं णायमेगंतो॥ वृक्षायुर्वेद और योनिप्राभृत में यह सिद्धांत प्रतिपादित है कि कार्य कारण से विलक्षण भी हो सकता है। इसलिए सुधर्मा! तुम्हारी उपर्युक्त मान्यता एकांततः सम्यक् नहीं है। ३८. अधव जतो च्चियबीया णुरूवजम्मं मतं ततो चेव। जीव गेण्ह भवातो भवंतरे चित्तपरिणामं॥ यदि तुम कारण के अनुरूप कार्य मानते हो तो भी तुम्हें जीव को वर्तमान जन्म से अगले जन्म में भिन्न मानना होगा। क्योंकि भवांकुर का बीज मनुष्य नहीं, कर्म है। वह विचित्र प्रकार का होता है। ३९. छिण्णम्मि संसयम्मि जरा और मृत्यु से मुक्त महावीर की. वाणी सुन पंडित जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। सुधर्मा का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने ५०० सो समणो पव्वइतो शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार पंचहिं सह खंडियसएहिं॥ कर ली। गणधर मण्डित ४०. ते पव्वइत्ते सोतुं मंडिओ आगच्छती जिणसगासं। इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पंडित वच्चामि णं वंदामि वंदित्ता पज्जुवासामि॥ मंडित ने सोचा-मैं भी महावीर के पास जाऊं। वंदना करूं और उनकी पर्युपासना करूं। ४१. आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं। णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥ जन्म, जरा और मुत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा ४२. किं मण्णे बंध-मोक्खा संति त्ति संसयो तुझं। मंडित! बंध और मोक्ष है या नहीं तुम्हारे मन में यह संदेह है ? ४३. तं मण्णसि जति बंधो जोगो जीवस्स कम्मणा समय। पुव्वं पच्छा जीवो कम्मं व समं व ते होज्जा॥ तुम्हारा मानना है कि जीव के साथ कर्म का संयोग ही यदि बंध है तो पहले जीव और पश्चात् कर्म उत्पन्न हुआ अथवा पहले कर्म और पश्चात् जीव उत्पन्न हुआ अथवा दोनों एक साथ उत्पन्न हुए यह प्रश्न अनुत्तरित है इसलिए न बंध है न मोक्ष। ४४. संताणोऽणातीओ परोप्परं हेतुहेतुभावातो। मंडित। शरीर और कर्म की संतति अनादि है। क्योंकि इनमें बीज और अंकुर के समान परस्पर कार्यकारण भाव है। देहस्सय कम्मस्स य मंडिय! बीयंकुराणं व॥
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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