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अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन
उद्भव और विकास ४५. अत्थि स देहो जो
कम्मकारणं जो य कज्जमण्णस्स। कम्मं च देहकारण
मत्थि य जं कज्जमण्णस्स॥
शरीर से कर्म और कर्म से शरीर की उत्पत्ति का क्रम भी अनादि काल से चला आ रहा है। इसलिए शरीर और कर्म की संतति भी अनादि है।
१६. तो किं जीवणभाणं व
जोगो अध कंचणोवलाणं व? जीवस्स य कम्मस्स य
भण्णति दुविहो वि ण विरुद्धो॥
क्या जीव और कर्म का संयोग जीव और आकाश के समान अनादि अनन्त है अथवा सोने और मिट्टी के समान अनादि सांत है? जीव में दोनों प्रकार का संयोग घटित हो सकता है। इसमें कोई विरोध नहीं है। अनादि सांत संयोग की अवस्था में ही मोक्ष संभव बनता है।
४७. छिण्णम्मि संसयम्मि
- जरा व मृत्यु से मुक्त भगवान महावीर की वाणी सुन . जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। पंडित मंडित का संशय छिन्न हुआ। उसने अपने ३५० सो समणो पव्वइतो
शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार - अछुढेहिं सह खंडियसतेहिं॥ की।
गणधर मौर्यपुत्र ४८. ते पव्वइते सोतुं .
इन्द्रभूति आदि प्रवजित हो गए, यह सुनकर पंडित : मोरिओ आगच्छती जिणसगासं। मौर्य ने सोचा-मैं भी महावीर के पास जाऊं, उन्हें वंदन ... वच्चामि णं वंदामि
करूं व उनकी पर्युपासना करूं। वंदित्ता पज्जवासामि॥
१९. आभट्ठो य जिणेणं जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं। . णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥
जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम व गोत्र से सम्बोधित कर कहा
५०. किं मण्णो अत्थि देवा
. उदाहु णत्थि त्ति संसयो तुज्झं।
मौर्यपुत्र! देवता है अथवा नहीं ? तुम्हारे मन में यह संदेह है ?
५१. जति णारगा पवण्णा पकिट्ठपावफलभोतिणो तेणं। । सुबहुगपुण्णफलभुजो पवज्जितव्वा सुरगणा वि॥
यदि तुम प्रकृष्ट पाप का फल भोगने वाले नारकों को स्वीकार करते हो तो तुम्हें प्रकृष्ट पुण्य का भोग करने वाले देवों को भी स्वीकार करना चाहिए।
५२. छिण्णम्मि संसयम्मि
जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। ' , सो समणो पव्वइतो
अछुढेहिं सह खंडियसतेहिं॥
जरा व मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पंडित मौर्य का संशय छिन्न हुआ। उसने अपने ३५० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार की।