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आत्मा का दर्शन
खण्ड-२
गणधर अकम्पित ५३. ते पव्वइते सोतुं
इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पंडित अकंपिओ आगच्छती जिणसगासं। अकम्पित ने सोचा-मैं महावीर के पास जाऊं, उन्हें वंदना वच्चामि णं बंदामि
करूं और उनकी पर्युपासना करूं। वंदित्ता पज्जुवासामि॥
५४. आभट्ठो य जिणेणं-जाइ-जरा मरणविप्पमुक्केणं।
नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥
जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम व गोत्र से सम्बोधित कर कहा
५५. किं मण्णे णेरइया
अस्थि णत्थि त्ति संसयो तुज्झं।
अकम्पित! नारक है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह संदेह है ?
५६. पावफलस्स पकिट्ठस्स भोइणो कम्मतोऽवसेस व्व।
संति धुवं तेभिमता णेरड्या अध मती होज्जा॥
शेष कर्मों की भांति प्रकृष्ट पाप फल को भोगने वाले नैरयिक होते हैं, यह तुम्हारा अभिमत है।
५७. अच्चत्थ दुक्खिता ते
तिरियणराणारग त्ति तेऽभिमता। तंण जतो सुरसोक्ख
प्पगरिससरिसं ण तं दुक्खं॥
तुम्हारे इस मत के अनुसार अत्यंत दुःखी जो मनुष्य और तिर्यंच हैं, वे ही नारक हैं। परन्तु यह अभिमत समीचीन नहीं है। जैसे देवों में प्रकृष्ट सुख होता है, वैसे ही नरक में प्रकृष्ट दुःख होता है। यदि तुम प्रकृष्ट सुख वाले देवों को स्वीकार करते हो तो प्रकृष्ट दुःख वाले नैरयिकों को क्यों नहीं स्वीकार करते हो?
५८. छिण्णम्मि संसयम्मि
जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। सो समणो पव्वइतो
तिहिं समं खंडियसतेहिं॥
जरा, मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पंडित अकम्पित का संशय छिन्न हुआ। उसने अपने ३०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार की।
गणधर अचलभ्राता ५९. ते पव्वइते सोतुं
इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पण्डित ___ अयलभाता आगच्छती जिणसगासं। अचलभ्राता ने सोचा-मैं महावीर के पास जाऊं, उन्हें वच्चामि णं वंदामि
वंदन करूं व उनकी पर्युपासना करूं। वंदित्ता पज्जुवासामि॥
६०. आभट्ठो य जिणेणं
. जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं। *णामेण य गोत्तेण य
सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥
जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम और गोत्र से सम्बोधित कर कहा