________________
अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन
उद्भव और विकास ६१. किं मण्णे पुण्ण-पावं
अत्थि व णत्थि त्ति संसयो तज्झं।
अचलभ्राता! पुण्य और पाप है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह संदेह है?
६२. मण्णसि पुण्णं पावं साधारणमधव दो वि भिण्णाई। ___ होज्ज ण वा कम्मं चिय सभावतो भवपपंचोऽयं॥
१. केवल पुण्य है, पाप नहीं है। २. केवल पाप है, पुण्य नहीं है। ३. पुण्य और पाप साधारण है-एक ही है। ४. पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र हैं। ५. पुण्य जैसा कोई कर्म नहीं है। सुख और दुःख सब स्वभाव से ही होता है।
। ६३. सुह दुक्खाणं कारण-मणुरूवं कज्जभावतोऽवस्सं। ____ परमाणवो घडस्स व कारणमिह पुण्णपावाई॥
सुख और दुःख दोनों कार्य हैं। वे कारण के अनुरूप ही होते हैं। जैसे घट का कारण परमाणु स्कंध है, वैसे ही सुख-दुःख के कारण पुण्य-पाप हैं।
... ६४. छिण्णंमि संसयम्मि
जरा, मृत्यु से मुक्त महावीर की वाणी सुन पण्डित जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं। अचलभ्राता का संशय छिन्न हुआ। उसने अपने ३०० ... सो समणो पव्वइतो
शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या स्वीकार . तिहिं तु सह खंडियसतेहिं॥ की।
गणधर मेतार्य ६५. ते पव्वइते सोतुं.
इन्द्रभूति आदि प्रव्रजित हो गए, यह सुनकर पण्डित मेतज्जो आगच्छती जिणसगासं। मेतार्य ने सोचा-मैं महावीर के पास जाऊं, उन्हें वंदन बच्चामि गं वंदामि
करूं व उनकी पर्युपासना करूं। वंदित्ता पन्जुवासामि॥
. . ६६. आभट्ठो य जिणेण जातिजरामरणविप्पमुक्केणं।
णामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसी णं॥
जन्म, जरा और मृत्यु से मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महावीर ने उसे आया देख नाम व गौत्र से सम्बोधित कर
कहा
६७. किं मण्णे परलोगो
अत्थि ण अस्थि त्ति संसयो तज्झं।
मेतार्य! परलोक है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह संदेह है?
६८. मण्णसि विणासि चेतो
उप्पत्तिमदादितो जधा कुंभो। णणु एतं चिय साधण
मविणासित्ते वि से सोम्म!॥
मेतार्य! तुम आत्मा को अनित्य मानते हो। तुम्हारा मत है जो उत्पत्तिधर्मा होता है, वह अनित्य होता है। जैसे घट। तुम अनित्य होने का जो साधन बता रहे हो, वही साधन नित्य होने का है। उत्पत्ति धर्म है। धर्म धर्मी में रहता है। इसलिए उत्पत्तिधर्म का जो आधार है, वह नित्य है। नित्य होता है, उसका पुनर्जन्म अवश्य होगा।