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________________ संबोधि २१७ ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर ने आत्मा का विकास अहिंसा के मूल में देखा। उनका समस्त कार्य-कलाप अहिंसा की परिक्रमा किए चलता था । इसलिए उनका उपदेश अहिंसापरक था । अहिंसा की आवाज एक छोर से दूसरे छोर तक व्याप्त हो गई। वह सबके लिए थी। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- 'जो धर्म में उठे हैं और जो नहीं उठे हैं उन सबको इस धर्म का उपदेश दो।' फलस्वरूप सहस्रों व्यक्ति पूर्ण अहिंसक (मुनि) बने। गृहस्थ जीवन में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है, इस प्रश्न के समाधान में भगवान् महावीर ने हिंसा के तीन भेद किए, जिनके स्वरूप का विवेचन अगले श्लोकों में स्पष्ट किया गया है। भगवान् ने तीन प्रकार की हिंसा का निरूपण करते हुए गृहस्थ को निरर्थक हिंसा और संकल्पजा हिंसा से दूर रहने की बात कही है, जो अत्यंत व्यवहार्य और सुखी जीवन की प्रेरणा देने वाली है। १५. कृषी रक्षा च वाणिज्यं, शिल्पं यद् यच्च वृत्तये । प्रोक्ता साऽऽरम्भजा हिंसा, दुर्वार्या गृहमेधिना ॥ अ. ७ : आज्ञावाद ॥ व्याख्या ॥ गृहस्थ अपने और अपने आश्रित व्यक्तियों के भरण-पोषण के लिए आजीविका करता है वह कर्म से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता। जहां कर्म है वहां हिंसा है। कर्म ही आरंभ है। कर्म की दो धाराएं हैं - गर्ह्य और अगर्ह्य । मांस, शराब, अंडे, आदि का व्यापार गर्ह्य - निंद्य माना गया है। एक आत्म- द्रष्टा या धार्मिक वह नहीं कर सकता । -खेती, रक्षा, शिल्प आदि वृत्तियां गर्ह्य नहीं हैं। गृहस्थ इनका अवलंबन लेता है। १६. आक्रामतां प्रतिरोधः, प्रत्याक्रमणपूर्वकम् । आक्रमणकारियों का प्रत्याक्रमण के द्वारा बलपूर्वक प्रतिरोध क्रियते शक्तियोगेन, हिंसा स्यात् सा विरोधजा ॥ किया जाता है, वह विरोधजा-हिंसा है। १७. लोभो द्वेषः प्रमादश्च यस्या मुख्यं प्रयोजकम् । . हेतुः गौणो न वा वृत्तेः, हिंसा संकल्पजाऽस्ति सा ॥ कृषि, रक्षा, व्यापार, शिल्प और आजीविका के लिए जो हिंसा की जाती है, उसे आरंभजा हिंसा कहा जाता है। इस हिंसा से गृहस्थ बच नहीं पाता। ॥ व्याख्या ॥ यहां आक्रांता बनने का निषेध है। गृहस्थ अपने बचाव के लिए प्रत्याक्रमण करता है। सभी राष्ट्र स्व-सीमा में रहना सीख जाएं, कोई किसी पर आक्रमण करने की चाल न चले तो शांति सहज ही फलित हो जाती है। आक्रमण की प्रवृत्ति युद्ध को जन्म देती है, शांति को भंग करती है और अंतर्राष्ट्रीय मर्यादा का अतिक्रमण करती है। भगवान् महावीर ने ऐसा नहीं कहा कि देश की सीमा पर शत्रुओं का आक्रमण हो और तुम मौन बैठे रहो, लेकिन यह कहा कि आक्रांता मत बनो। आक्रमण के प्रति प्रत्याक्रमण करना अहिंसा नहीं, किन्तु विरोधना हिंसा है। १८. सर्वथा सर्वदा सर्वा, हिंसा वर्ज्या हि संयतैः । प्राणघातो न वा कार्यः, प्रमादाचरणं तथा ॥ १९. व्यर्थ कुर्वीत नारम्भं श्राद्धो नाक्रमको भवेत् । 'हिंसां संकल्पजां नूनं वर्जयेद् धर्ममर्मवित् ॥ जिस हिंसा के प्रयोजक-प्रेरक लोभ, द्वेष और प्रमाद होते हैं और जिसमें आजीविका का प्रश्न गौण होता है या नहीं होता, वह संकल्पजा - हिंसा है।. संयमी पुरुषों को सब काल में, सब प्रकार से, सब हिंसा का वर्जन करना चाहिए, न प्राणघात करना चाहिए और न प्रमाद का आचरण । धर्म के मर्म को जानने वाला श्रावक अनावश्यक आरंभजाहिंसा न करे, आक्रमणकारी न बने और संकल्पजा-हिंसा का अवश्य वर्जन करे।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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