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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
प्रवृत्तियों का संवरण करना होगा। महाव्रत, अणुव्रत आदि की साधना अशुभ-विरति की साधना है। जैसे-जैसे साधक आगे बढ़ता है सामायिक, समता, संवर आता है और इंद्रिय और मन का निरोध करने में कुशल होता चला जाता है। एक क्षण आता है कि वह बाहर से सर्वथा शून्य-बेहोश तथा अंतर् में पूर्ण सचेतन होता है। यही क्षण शुद्ध स्वात्मोपलब्धि का है। जहां बाह्य आकर्षणों का आधिपत्य स्वतः ध्वंस हो जाता है, वही वास्तविक संयम है।
१०.हिंसाऽनृतं तथा
ध्रुवं प्रवृत्तिरेतेषां,
स्तेयाऽब्रह्मचर्यपरिग्रहाः। असंयम इहोच्यते॥
हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह की प्रवृत्ति असंयम कहलाती है।
११.ऐतेषां विरतिः प्रोक्तः, संयमस्तत्त्ववेदिना।
पूर्णा सा पूर्ण एवासौ, अपूर्णायाञ्च सोंशतः॥
तत्त्वज्ञों ने हिंसा आदि की विरति को 'संयम' कहा है। पूर्ण विरति से पूर्ण संयम और अपूर्ण विरति से आंशिक संयम होता है।
॥ व्याख्या ॥ जो व्यक्ति हिंसा में रचा-पचा रहता है, वह असंयमी है, जो इनका आंशिक नियंत्रण करता है वह संयमासंयमी. है, श्रावक है और जो इनका पूर्ण त्याग करता है वह संयमी है, साधु है। जितने अंशों में उनका त्याग होता है, उतने अंशों में संयम की प्राप्ति होती है और जितना अत्याग-भाव है वह असंयम है।
१२.पूर्णस्याराधकः प्रोक्तः, संयमी मुनिरुत्तमः।
अपूर्णाराधकः प्रोक्तः, श्रावकोऽपूर्णसंयमी॥
पूर्ण संयम की आराधना करने वाला संयमी उत्तम मुनि कहलाता है और अपूर्ण संयम की आराधना करने वाला अपूर्ण संयमी या श्रावक कहलाता है।..
१३. रागद्वेषविनिर्मुक्त्यै, विहिता देशना जिनैः।
अहिंसा स्यात्तयोर्मोक्षो, हिंसा तत्र प्रवर्तनम्॥
वीतराग ने राग और द्वेष से विमुक्त होने के लिए उपदेश दिया। राग और द्वेष से मुक्त होना अहिंसा है और उनमें प्रवृत्ति करना हिंसा है।
॥ व्याख्या ॥ जहां राग-द्वेष विद्यमान हैं, वहां अहिंसा नहीं हो सकती। जो क्रियाएं राग-द्वेष से प्रेरित हैं, वे अहिंसक नहीं हो सकतीं। जो क्रियाएं इनसे मुक्त हैं, वे अहिंसा की परिधि में आ सकती हैं। सामान्य गृहस्थ के लिए राग संपूर्ण मुक्त हो पाना संभव नहीं है, फिर भी वह अपने सामर्थ्य के अनुसार इनसे दूर रहता है, वह उसका अहिंसक भाव है। वीतराग व्यक्ति की प्रत्येक प्रवृत्ति अहिंसा की पोषक होती है और अवीतराग व्यक्ति की प्रवृत्ति में रागद्वेष का मिश्रण रहता है। इसे स्थूल बुद्धि से समझ पाना कठिन है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर कहीं एक कोने में छिपे हुए राग-द्वेष देखे जा सकते हैं।
भगवान् का सारा प्रवचन राग-द्वेष की मुक्ति के लिए होता है। राग-द्वेष की मुक्ति हो जाने पर सारे दोष धुल जाते हैं। सब दोषों के ये दो उत्पादक तत्त्व हैं। सारे दोष इन्हीं की संतान हैं।
१४.आरम्भाच्च विरोधाच्च, संकल्पाज्जायते खलु।
तेन हिंसा त्रिधा प्रोक्ता, तत्त्वदर्शनकोविदः॥
हिंसा करने के तीन हेतु हैं-आरंभ, विरोध और संकल्प। अतः तत्त्वज्ञानी पंडितों ने हिंसा के तीन भेद बतलाए हैं• आरंभजा हिंसा-जीवनयापन हेतुक हिंसा।
विरोधजा हिंसा-प्रतिरक्षात्मक हिंसा। •संकल्पजा हिंसा-आक्रामक हिंसा।