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________________ संबोधि २१५ अ.७: आज्ञावाद ७. आराधको जिनाज्ञायाः, संसारं तरति ध्रुवम्। वीतराग की आज्ञा की आराधना करने वाला निश्चित रूप से तस्या विराधको भूत्वा, भवाम्भोधौ निमज्जति॥ भव-सागर को तर जाता है और उसकी विराधना करने वाला भव-सागर में डूब जाता है। जो ८. आज्ञाया यश्च श्रद्धालुः, मेधावी स इहोच्यते। ____ असंयमो जिनानाज्ञा, जिनाज्ञा संयमो ध्रुवम्॥ जो आज्ञा के प्रति श्रद्धावान् है, वह मेधावी है। असंयम की प्रवृत्ति में वीतराग की आज्ञा नहीं है। जहां संयम है वहीं वीतराग की आज्ञा है। ९. संयम जीवनं श्रेयः, संयमे मृत्युरुत्तमः। संयममय जीवन और संयममय मृत्य श्रेय है। असंयममय जीवनं मरणं मुक्त्यै, नैव स्यातामसंयमे॥ जीवन और असंयममय मरण मुक्ति के हेतु नहीं बनते। ॥ व्याख्या ॥ --- संसारी प्राणी की दो अवस्थाएं हैं-जीवन और मरण। ये दोनों अपने आप में अच्छे या बुरे नहीं होते। जब ये दोनों संयम से अनुप्राणित होते हैं तब श्रेयस्कर बनते हैं और जब असंयम से ओत-प्रोत होते हैं तब ये अश्रेयस्कर हो जाते हैं। संयमी व्यक्ति का जीना भी अच्छा है और मरना भी। असंयमी व्यक्ति का न जीना अच्छा है और न मरना। संयमी व्यक्ति यहां जीता हुआ सत्क्रिया में प्रवृत्त रहता है, शांति और आनंद का अनुभव करता है और जब वह मरता है तो उसकी अच्छी गति होती है। असंयमी व्यक्ति का जीवन न यहां अच्छा होता है और न उसका परलोक ही सुधरता है। जिसका वर्तमान पवित्र नहीं है, उसका भविष्य पवित्र नहीं हो सकता। जिसका वर्तमान पवित्र है, उसका ___ भविष्य निश्चित रूप से सुन्दर होगा। .. जैन दर्शन में कामनाओं का निषेध किया गया है। किन्तु मुमुक्षु के लिए संयममय जीवन और संयममय मृत्यु की कामना का विधान मिलता है। श्रावक के तीन मनोरथों में एक यह भी है-कब मैं समाधिपूर्ण मरण को प्राप्त करूंगा। जीवन की यह अंतिम परिणति यदि समाधिमय होती है तो उसका फल श्रेयस्कर होता है। एक बार भगवान् महावीर समवसरण में बैठे थे। वहां राजा श्रेणिक, अमात्य अभयकुमार और कसाई । कालसौकरिक भी उपस्थित थे। एक ब्राह्मण वहां आया। उसने भगवान् महावीर से कहा-मरो। राजा श्रेणिक से कहा-मत मरो। अमात्य अभयकुमार से कहा-भले मरो, भले जीओ। कालसौकरिक से कहा-मत मरो, मत जीओ। ..'ब्राह्मण यह कहकर चला गया। राजा श्रेणिक का मन इन वाक्यों से आंदोलित हो उठा। उसने भगवान् से पूछा। भगवान् ने कहा-राजन्! वह ब्राह्मण के वेश में देव था। उसने जो कहा वह सत्य है। उसने मुझे कहा-मर जाओ। 'इसका तात्पर्य है कि मरते ही मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। उसने तुझे कहा-मत मरो। यह इसलिए कि तुझे मरने के बाद नरक मिलेगा। अमात्य से कहा-भले मरो, भले जीओ। क्योंकि वह मरने पर स्वर्ग प्राप्त करेगा जहां सुख ही सुख है और यहां भी उसे सुख ही है। कालसौकरिक से कहा-मत मरो, मत जीओ। क्योंकि उसका वर्तमान जीवन भी पापमय प्रवृत्तियों से आक्रांत है और मरने पर भी उसे नरक ही मिलेगा। . इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि जीना अच्छा भी है और बुरा भी; मरना अच्छा भी है और बुरा भी। जो शब्द जितना अधिक व्यवहृत हो जाता है, उतना ही अधिक वह रूद बन जाता है। संयम की जो गरिमा प्रारंभ में उपलब्ध थी वैसी आज नहीं है। वह रूढ़ हो गया। यह केवल संयम शब्द के साथ ही ऐसा हुआ हो यह नहीं, सबके साथ ही कालान्तर में ऐसा हो जाता है। जितने भी क्रियाकांड आज व्यवहृत हैं, उनके प्रवृत्ति-काल में एक सौंदर्य था, जीवंतता थी और चैतन्य था। कालचक्र के प्रवाह से वे शव बनकर रह गए, चैतन्य चला गया। संयम का अर्थ है-निष्क्रियता, क्रिया का सर्वथा निरोध हो जाना। इसका फलितार्थ होता है-शुद्धात्मा की उपलब्धिं, किंतु यह भी स्पष्ट है कि पूर्ण अक्रियत्व प्रथम चरण में ही उपलब्ध नहीं होता। उसके लिए क्रमशः आरोहण की अपेक्षा होती है। यद्यपि संयम का पूर्ण ध्येय वही है, किंतु प्राथमिक अभ्यास की दृष्टि से व्यक्ति को अपनी अशुभ
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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