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________________ आत्मा का दर्शन २१८ ॥ व्याख्या || खण्ड - ३ तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं १. गृहस्थ, २. गृहस्थ-साधक ( उपासक श्रावक), ३. मुनि। यह भेद बाह्य आकृति या कार्य पर आधारित नहीं है। यह अंतरवृत्ति पर आधारित है। मुनि उसे कहते हैं जो अपने को जगाने, जानने में पूर्णतया समर्पित हो चुका है। आत्महित ही जिसका एकमात्र ध्येय है, जो अहर्निश उसी में निरतं रहता है, वह मुनि होता है। गृहस्थ साधक वह होता है जो गृहस्थ के उत्तरादायित्वों का निर्वाह करते हुए भी धर्म की दिशा में सतत गतिशील रहता है, धर्म को अपने सामने रखता है संत सहनो ने कहा है'जागृत में सुमिरन करो, सोवत में लौ लाय । सहजो एक रस ही रहे, तार टूट ना जाय ॥' गृहस्थ-उपासक और मुनि दोनों का लक्ष्य एक है इसलिए सतत स्मृति दोनों के लिए अपेक्षित है। अंतर केवल कर्त्तव्य का होता है। देखना सिर्फ इतना ही है कि कार्य व्यस्तता में स्मृति का तार कितना अविच्छिन्न रहता है। जिस गृह- साधक की स्मृति इतनी हो जाती है वह एक क्षण भी स्वयं से दूर नहीं होता। उसके कार्य एक स्तर पर चलते हैं और वह जीता किसी और स्तर पर है जीवन जीने की यह परम कला है। इससे ही उसकी समस्त प्रवृत्तियां सत्य की ओर उन्मुक्त हो जाती हैं उसका समग्र व्यवहार इसकी परिक्रमा किए चलता है विधिनिषेध का केन्द्र धर्म होता है। वह उसी के निर्णय को महत्त्व देता है। उसके आक्रांत होने या हिंसक होने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । गृहस्थ दोनों से विपरीत है वह जीवन जीता है किन्तु जीवन का वास्तविक ध्येय उसके सामने नहीं रहता । लक्ष्य के आधार पर ही जीवन की वृत्ति का पहिया घूमता है। यदि ध्येय स्पष्ट और शुद्ध होता है तो क्रिया को भी उसका अनुगमन करना होता है। शुद्ध-साध्य के लिए साधन-शुद्धि की बात गौण नहीं हो सकती। जीवन का लक्ष्य केवल बहिर्मुखी (भौतिक) होता है, तब वृत्तियां अंतर्मुखी कैसे हो सकेंगी?, गृहस्थं बहिर्मुखी होता है, इसलिए वह आक्रमण करने से भी चूकता नहीं। दुनियां के युद्धों के इतिहास के पीछे यही मनोवृत्ति काम कर रही है। पांच हजार वर्षों के इतिहास में पन्द्रह सौ बड़े युद्ध क्या बहिर्मुखता के द्योतक नहीं हैं? यह तो विश्व की स्थिति का दर्शन है। जीवन निर्वाह के निरंतर चलने वाले कलह-झगड़े, वे क्या हैं? क्या उनके पीछे कोई वास्तविक उद्देश्य होता है ! व्यर्थ के झंझटों में मनुष्य व्यर्थ उलझता है और दूसरों को भी उलझाता है। यह मानवीय स्वभाव की दुर्बलता है। सत्य, अहिंसा, नैतिकता आदि उसके लिए सिर्फ शब्द होते हैं। संकल्पज़ा हिंसा से भी यदि मनुष्य निरत हो सके तो सुख की सृष्टि संभव हो सकती है। २०. अहिंसैव विहितोस्ति, धर्मः संयमिनो ध्रुवम् । निषेधः सर्वहिंसाया, द्विविधा वृत्तिरस्य यत् ॥ संयमी पुरुष के लिए अहिंसा धर्म ही विहित है और सब प्रकार की हिंसा वर्जित है। संयमी की वृत्ति दो प्रकार की होती है-अहिंसा का आचरण, यह विधेयात्मक वृत्ति है। हिंसा का वर्जन, यह निषेधात्मक वृत्ति है। ॥ व्याख्या ॥ संयमी व्यक्ति की अहिंसा विधेयात्मक और निषेधात्मक दोनों है । विधेयात्मक अहिंसा को समिति कहते हैं और निषेधात्मक अहिंसा को गुप्ति अशुभ और शुभ योग के निरोध का नाम गुप्ति है और शुभ योग में प्रवृत्त होने का नाम समिति । है। गुप्ति तीन हैं - मनोगुप्ति, वाक्गुप्ति और कायगुप्ति। मुनि क्रमशः मन के अप्रशस्त और प्रशस्त योग का विरोध करे । विधेयात्मक अहिंसा के पांच रूप हैं: १. ईय समिति देखकर चलना, विधिपूर्वक चलना। २. भाषा समिति- विचारपूर्वक संभाषण करना। ३. एषणा समिति—भोजन-पानी की गवेषणा में सतर्कता रखना । ४. आदान- निक्षेप समिति - वस्तु के लेने और रखने में सावधानी बरतना। ५. उत्सर्ग समिति उत्सर्ग करने में सावधानी बरतना, समिति में अशुभ का निरोध और शुभ में प्रवर्त्तन है । गुप्ति में शुभ का भी निरोध होता है। आत्मा का पूर्ण अभ्युदय निरोध से होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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