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________________ संबोधि २१९ अ. ७: आज्ञावाद २१.अहिंसाया आचरणे, विधानञ्च यथास्थितिः। श्रावक के लिए मैंने यथाशक्ति अहिंसा के आचरण का संकल्पजा-निषेधश्च, श्रावकाय कृतो मया॥ विधान और संकल्पजा-हिंसा का निषेध किया है। २२. अविहिताऽनिषिद्धा च, तृतीया वृत्तिरस्य सा। गृहस्थ की तीसरी वृत्ति जो है, वह न विहित है और न सर्वहिंसापरित्यागी, नाऽसौ तेन प्रवर्तते॥ निषिद्ध है। वह सर्व-हिंसा का परित्यागी नहीं होता, इसलिए उस वृत्ति का अवलंबन लेता है। ॥ व्याख्या ॥ वृत्तियां तीन प्रकार की होती हैं : १. विहित-जिनका विधान किया गया है, जैसे-धर्म की उपासना करना, अहिंसा का आचरण करना। २. निषिद्ध-जिनका निषेध किया जाता है, जैसे-मांस का व्यापार न करना, व्यभिचार न करना आदि। ३. न विहित, न निषिद्ध-जिसका न विधान होता है और न निषेध, जैसे-विवाह करना , व्यापार करना आदि। इन प्रवृत्तियों के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता। इस श्लोक में यही समझाया गया है कि गृहस्थ संपूर्ण रूप से हिंसा का त्याग नहीं कर सकता, क्योंकि एक गृहस्थ के नाते उसे अनेक जिम्मेदारियां निभानी होती हैं। वह भिक्षा से अपना जीवन नहीं चला सकता, अतः उसे व्यापार करना पड़ता है। व्यापार में हिंसा भी होती है। वह वाहनों का उपयोग करता है। आवश्यकतावश छह जीवों का समारंभ भी करता है। उसकी समस्त पापमय. प्रवृत्तियों का निषेध नहीं किया जा सकता। हिंसा हिंसा है, परन्तु क्षेत्र या अवस्था भेद से वह विहित आ अविहित होती है। २३. हिंसाविधानं नो शक्यं तेन साऽविहिता खल। हिंसा का विधान नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अनिवार्या जीविकाय, निरोढुं शक्यते न तत्॥ अविहित है और आजीविका के लिए जो अनिवार्य हिंसा हो तो उसका निषेध नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अनिषिद्ध है। || व्याख्या ॥ _ पूर्ण अहिंसक व्यक्ति की अपनी मर्यादा होती है। वह हिंसा का निषेध और अहिंसा के आचरण का उपदेश देता है। आवश्यक हिंसा का भी अनुमोदन या विधान उसके द्वारा नहीं हो सकता। अहिंसक के सामने आवश्यकता और अनावश्यकता का प्रश्न मुख्य नहीं होता। जीवन और मृत्यु का प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण नहीं होता। उसके सामने मुख्य प्रश्न होता, है-अहिंसा की सुरक्षा। हिंसा उसे किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं होती। इसलिए वह हिंसा का विधान कर ही नहीं सकता। वह अहिंसा के पालन के लिए प्राणों का विसर्जन भी करने में तत्पर होता है, किन्तु न स्वयं हिंसा करता है और न दूसरों को उस ओर प्रेरित करता है। दूसरी बात यह है कि वह हिंसा न करने का सर्वथा निषेध भी नहीं कर सकता। क्योंकि गृहस्थ जीवन में अनिवार्य हिंसा से बचा नहीं जा सकता। यदि वह उसका निषेध करता है तो उसका कथन अव्यवहार्य बन जाता है। अतः उसे मध्यम-मार्ग का अवलंबन लेना पड़ता है। २४.द्विविधो गृहिणां धर्म, आत्मिको लौकिकस्तथा। .. संवरो निर्जरा पूर्वः, समाजाभिमतोऽपरः॥ गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का होता है-आत्मिक और लौकिक। आत्मिक-धर्म के दो प्रकार हैं-संवर और निर्जरा । समाज के द्वारा अभिमत धर्म को लौकिक धर्म कहा जाता है। || व्याख्या ॥ - धर्म दो प्रकार का है-आत्मिक और लौकिक। सामायिक, संवर, पौषध, त्याग, ध्यान, तपस्या आदि आत्मिक धर्म है। इसमें अहिंसा आदि धर्मों का विमर्श और आचरण मुख्य होता है। संक्षेप में आत्माभिमुखी सारी प्रवृत्तियां आत्मिक धर्म के अंतर्गत आती हैं। लौकिक धर्म का अर्थ है-समाज द्वारा अभिमत आचार। इसमें हिंसा-अहिंसा का विचार मुख्य नहीं होता, मुख्य होता है सामाजिक आचार, नीति। समाज धर्म समाज-सापेक्ष होता है। वह ध्रुव नहीं
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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