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आत्मा का दर्शन २२०
खण्ड-३ होता, परिवर्तनशील होता है। लौकिक धर्म की विचारणा में मोक्ष का विमर्श गौण होता हैं, सामाजिक अभ्युदय का विचार मुख्य होता है। २५.आत्मशद्धयै भवेदाधो. देशितः स मया ध्रवम। आत्मिक-धर्म आत्मशद्धि के लिए होता है इसलिए मैंने समाजस्य प्रवृत्त्यर्थं, द्वितीयो वयत जनैः॥ उसका उपदेश किया है। लौकिक-धर्म समाज की प्रवृत्ति के लिए
होता है। उसका प्रवर्तन सामाजिक जनों के द्वारा किया जाता है। २६.आत्मधर्मो मुमुक्षूणां, गृहिणाञ्च समो मतः। आत्म-धर्म साधु और गृहस्थ-दोनों के लिए समान है। धर्म पालनापेक्षया भेदो, भेदो नास्ति स्वरूपतः॥ के जो विभाग हैं, वे पालन करने की अपेक्षा से किए गए हैं।
स्वरूप की दृष्टि से वह एक है, उसका कोई विभाग नहीं होता। २७. पाल्यते साधुभिः पूर्णः, श्रावकैश्च यथाक्षमम्। साधु आत्म-धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और श्रावक यत्र धर्मो हि साधूनां, तत्रैव गृहमेधिनाम्॥ उसका पालन यथाशक्ति करते हैं। संयममय आचरण साधु के
लिए भी धर्म है, गृहस्थ के लिए भी धर्म है। असंयममय आचरण साधु के लिए भी धर्म नहीं है, गृहस्थ के लिए भी धर्म नहीं है।
॥ व्याख्या ॥
अहिंसा गृहस्थ के लिए धर्म हो और साधु के लिए अधर्म अथवा साधु के लिए धर्म हो और गृहस्थ के लिए अधर्म, ऐसा कभी नहीं होता। तात्पर्य यही है कि गृहस्थ का धर्म साधु के धर्म से भिन्न नहीं किन्तु उसी का एक अंश है।
मुनि और गृहस्थ दोनों का धर्म एक है। अंतर इतना ही है कि मुनि धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और
| उसका आंशिक रूप में। धर्म के विभाग व्यक्ति-व्यक्ति की पालन करने की शक्ति के आधार पर किए गए हैं। उनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्राभेद होता है। मुनि अहिंसा का पूर्ण व्रत स्वीकार करते हैं और गृहस्थ अपने सामर्थ्य के अनुसार उसका पालन करते हैं। यही धर्म के विभिन्न रूपों का आधार है।
२८.तीर्थङ्करा अभूवन ये, विद्यन्ते ये च सम्प्रति।
भविष्यन्ति च ते सर्वे, भाषन्ते धर्ममीदृशम्॥
जो तीर्थंकर अतीत में हुए, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, वे सब ऐसे ही धर्म का निरूपण,करते हैं।
२९.सर्वे जीवा न हन्तव्याः, कार्या पीडापि नाल्पिका।
उपद्रवो न कर्तव्यो, नाऽऽज्ञाप्या बलपूर्वकम्॥
कोई भी जीव हंतव्य नहीं है, न उन्हें किंचित् पीड़ित करना चाहिए, न उपद्रव करना चाहिए, न बलपूर्वक उन पर शासन करना चाहिए और न दास बनाने के लिए उन्हें अपने अधीन रखना चाहिए-यह अहिंसा-धर्म ध्रुव, नित्य, शाश्वत और वीतराग के द्वारा निरूपित है।
३०.न वा परिगृहीतव्या, दासकर्मनियुक्तये। एष धर्मो ध्रुवो नित्यः, शाश्वतो जिनदेशितः॥
(युग्मम्)
किसा
३१.न विरुध्येत केनापि, न बिभियान्न भाययेत्।
अधिकारान्न मुष्णीयाद्, न कुर्याद् श्रमशोषणम्॥
किसी के साथ विरोध न करे, न किसी से डरे और न किसी को डराए, न किसी के अधिकारों का अपहरण करे और न किसी के श्रम का शोषण करे।
३२. जातेः कुलस्य रूपस्य, न बलस्य श्रुतस्य च।
नैश्वर्यस्य न लाभस्य, न मदं तपसः सृजेत्॥
जाति, कुल, रूप, बल, श्रुत, ऐश्वर्य, लाभ और तप का मद न करे। .