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________________ संबोधि २२१ ३३. न तुच्छान् भावयेज्जीवान्, न तुच्छं भावयेन्निजम् । सर्वभूतात्मभूतो हि स्यादहिंसापरायणः ॥ अ. ७: आज्ञावाद दूसरों को तुच्छ न समझे और अपने को भी तुच्छ न समझे। जो सब जीवों को आत्मभूत - अपने तुल्य समझता है, वह अहिंसा परायण है। || व्याख्या || उपरोक्त श्लोकों में अहिंसा का समग्र रूप प्रतिपादित हुआ है। जीव-घात ही हिंसा नहीं है, दूसरों पर अनुशासन करना, धोखा देना, अपने अधीन रखना, दुःख देना, दास बनाना, आदि प्रवृत्तियां भी हिंसा है जो अहिंसक होता है, वह ऐसा नहीं कर सकता। अहिंसा सभी व्रतों का सार है। कहा गया है कि अहिंसा ही व्रत है और दूसरे सारे व्रत के पोषक हैं। जो अहिंसा का सही अर्थ में पालन करता है, वह सत्य, ब्रह्मचर्य आदि सभी व्रतों का पालन करता है । डराना हिंसा है तो डरना भी हिंसा है अहिंसा डरना नहीं सिखाती वह व्यक्ति में अभय की शक्ति जगाती है। वास्तव में वही व्यक्ति अभय हो सकता है, जो अहिंसक है। अहिंसा की प्राप्ति के लिए हिंसा के कारणों का विसर्जन भी अपेक्षित है। हिंसा के हेतु हैं - विरोध, भय, दूसरों के अधिकारों को कुचलना, अभिमान, दूसरों को हीन मानना और स्वयं को भी हीन मानना । वैर से वैर बढ़ता है, प्रतिशोध की भावना प्रबल होती है। इसलिए अहिंसक सबके साथ मैत्री का संकल्प करता है। उसका घोष है- मेरी सबके साथ मैत्री है, किसी के साथ शत्रु भाव नहीं है। भय से भी हिंसा का विस्तार होता है। भयभीत व्यक्ति प्रतिक्षण आशंकाओं से घिरा रहता है अर्थ नाश का भय, मृत्यु का भय, अपयश का भय, रोग का भय आदि भयों से उसका चिंतन हिंसोन्मुख रहता है। भयभीत व्यक्ति हजारों बार मरता है। जो व्यक्ति अभय है, उसे ये भय नहीं सताते और न वह अपने जीवन में अनेक बार मरता है । इसलिए भगवान् ने कहा है-अहिंसक न स्वयं डरे और न दूसरों को डराये। डरना और डराना दोनों ही हिंसा है। दूसरों के अधिकारों का अपहरण करने से उनमें प्रतिशोध का भाव बढ़ता है। स्वयं में भय जगता है, प्रतिकार के उपायों से ध्यान आर्त बनता है, अतः किसी के अधिकारों को मत कुचलो। अभिमान हिंसा है। दूसरों को हीन और अपने को ऊंचा मानना वह उसका लक्षण है। यह असमानता की वृत्ति व्यक्ति के मन में हिंसा का ज्वार पैदा करती है और उनका प्रतिफल अनेक कटुरूपों में फलित होता है। इसे आज कौन नहीं जानता। अहिंसा की साधना का अर्थ है-सदा विनम्र रहना और सबको अपने जैसा मानना । भगवान महावीर ने कहा है- 'नो हीणे नो अइरिते' अपने आपको न हीन समझो और न ऊंचा समझो यह समता का मंत्र है और यह दूसरों के यथार्थ अस्तित्व का स्वीकरण है। दूसरों को तुच्छ मानना हिंसा है तो अपने आपको भी तुच्छ मानना हिंसा है। इससे आत्मा का शौर्य विलुप्त हो जाता है। व्यक्ति में घबराहट पैदा हो जाती है। वह अकाल में ही काल-कवलित हो जाता है हीन वृत्ति वाला मनुष्य अपना समाज, देश और राष्ट्र का भला नहीं कर सकता। अध्यात्म-क्षेत्र में प्रवेश करने से वह वंचित रह जाता है। हीन मनोवृत्ति वाले का मन सदा हीन भावना से घिरा रहता है। वह अपने ही हीन संकल्पों से हीनता की और बढ़ता रहता है। मैं दरिद्र हूं, मैं अस्वस्थ हूं, मैं अशक्त हूं, मैं अयोग्य 'हूं'–ये संकल्प व्यक्ति को वैसा ही बना देते हैं। आज के चिकित्सक यह मानते हैं कि मनुष्य के शरीर में कुछ ऐसी ग्रंथियां हैं, जिनसे वह अपने को हीन मानने लगता है। वे चिकित्सा कर उसे हीन भावना से मुक्त कर देते हैं। लेकिन मनोवैज्ञानिक और अध्यात्म द्रष्टाओं की विचारधारा में इसकी सफल चिकित्सा है हीन भावनाओं के स्थान पर उच्च संकल्पों को स्थान देना । मानसिक संकल्प के द्वारा अनेक रोगियों को आज रोग मुक्त किया जाता है। तब यह हीन - भावना का मानसिक रोग संकल्पों से दूर क्यों नहीं किया जा सकता? मनुष्य सदा पवित्र संकल्पों को दोहराए और कुछ क्षण उनका चिंतन करे तो उस पर इसका जादू का सा असर होता है, हीन भावनाएं स्वतः ही नष्ट हो जाती हैं। संकल्प यों हो सकते हैं मैं स्वस्थ हूं। मैं ऐश्वर्यशाली हूं। मैं शक्ति संपन्न हूं। मैं योग्य हूं। मैं शुद्ध, बुद्ध और परमात्मरूप हूं। -
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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