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________________ आत्मा का दर्शन २२२ ३४. अहिंसाऽऽराधिका येन, ममाज्ञा तेन साधिता । आराधितोस्मि तेनाहं, धर्मस्तेनात्मसात्कृतः॥ ३५. अहिंसा विद्यते यत्र, ममाज्ञा तत्र विद्यते। ममाज्ञायामहिंसायां न विशेषोस्ति कश्चन ॥ क्षुधितानामिवाशनम् । ३६. भीतानामिव शरणं, तृषितानामिव जलं, अहिंसा भगवत्यसौ ॥ ३७. शुद्धं शिवं सुकथितं, सुदृष्टं सुप्रतिष्ठितम् । सारभूतञ्च लोकेऽस्मिन्, सत्यमस्ति सनातनम् ॥ || व्याख्या || महावीर कहते हैं-मेरी आज्ञा और अहिंसा में कोई द्वैत नहीं है। जो आज्ञा है वही अहिंसा है और जो अहिंसा है। वही आज्ञा है। अहिंसा और आज्ञा में अंतर नहीं है। अहिंसा और प्रेम में भी अंतर नहीं है। जीसस ने कहा है- 'लव इज गोड' (Love is God) प्रेम परमात्मा है। परमात्मा को साध लो प्रेम सध जाएगा। प्रेम को साध लो परमात्मा संध जाएगा। परमात्मा प्रेम का पूर्ण रूप है। अनेक संत प्रेम की भाषा में बोले हैं। किंतु उनका प्रेम किसी में आबद्ध नहीं था। सीमाबद्ध प्रेम होता तो फिर वह प्रेम घृणा से अछूता नहीं होता, उसके पीछे मिश्रित रूप से घृणा की छाया होती । वह अस्थायी होता, स्थायी नहीं होता । अहिंसा की विधायक भाषा प्रेम है। जैसे-जैसे आत्मा का सर्वोच्च रूप निखरता जाएगा, अहिंसा-प्रेम भी विस्तृत और व्यापक बनता चला जाएगा। 'मैं और मेरे' की संकीर्णदृष्टि निर्मूल हो जाएगी । संकीर्णता, स्वार्थ, घृणा आदि का जहां अस्तित्व रहता है वहां अहिंसा की धारा कैसे प्रवाहमान रह सकती है ? अहिंसा के अभाव में मानव जगत् शांति से जीवित नहीं रह सकता। इसलिए अहिंसा को त्राण कहा हैं। ३८. महातृष्णाप्रतीकारं, उत्तमानामभिमतं खण्ड - ३ जिसने अहिंसा की आराधना की, उसने मेरी आज्ञा की आराधना की है, उसने मुझे आराध लिया है और उसने धर्म को आत्मसात् कर लिया है। निर्भयञ्च अस्तेयं जहां अहिंसा है वहां मेरी आज्ञा है। मेरी आज्ञा और अहिंसा में कोई भेद नहीं है। निरास्रवम् । प्रत्ययास्पदम् ॥ यह भगवती अहिंसा भयभीत व्यक्तियों के लिए शरण, भूखों के लिए भोजन और प्यासों के लिए पानी के समान है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर ने कहा-'सच्चं लोगम्मि सारभूयं ' - सत्य लोक में सारभूत है। 'सच्चं भयवं'व' -सत्य ही भगवान् है। यह सत्य की महिमा है। प्रश्न होता है कि सत्य क्या है ? इसका उत्तर है- 'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं' - सत्य वही है जो आप्तपुरुषों द्वारा कथित है। 'निग्गंथं पावयणं सच्चं ' -निर्ग्रथ व्यक्तियों का जो प्रवचन है, वह सत्य है। सत्य का यह स्वरूप व्यापक और सर्वग्राह्य है । यथार्थ द्रष्टाओं का दर्शन सत्य है । यथार्थ- द्रष्टा वे होते हैं, जिनके राग-द्वेष और मोह आदि दोष नष्ट हो जाते हैं और जिनका ज्ञान अबाधित होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान सत्य का घटक होता है। सत्य किसी सीमा में आबद्ध नहीं होता। वह व्यापक और सार्वजनिक होता है। स्वभाव सत्य है, विभाव असत्य । इस लोक में सत्य शुद्ध, शिव, सुभाषित, सुदृष्ट, सुप्रतिष्ठित, सारभूत और सनातन / शाश्वत है। अचौर्य बढ़ती हुई तृष्णा का प्रतिकार, भयमुक्त करने वाला, अनेक बुराइयों से बचाने वाला, उत्तम जनों द्वारा अभिमत और विश्वास का आस्थान है। ॥ व्याख्या ॥ अदत्त का शाब्दिक अर्थ है - बिना दिया हुआ ग्रहण करना । यह बहुत स्थूल है। यदि व्यक्ति स्थूल पर स्थिर हो जाए तो सूक्ष्म में प्रवेश नहीं हो पाता। महावीर जिस धरातल पर अदत्त की बात कहते हैं, वह बहुत सूक्ष्म है। इस जगत् में हमारा क्या है? अस्तित्व के अतिरिक्त सब कुछ पराया है। अस्तित्व की उपलब्धि के अभाव में चोरी से बचना कैसे संभव हो ? दूसरों का क्या मानव अनुकरण नहीं करता? उसके पास जो कुछ है वह सब अनुकृत है, उधार
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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