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________________ संबोधि २२३ अ. ७ : आज्ञावाद लिया हुआ है। यदि ठीक से हम अपने पर दृष्टिपात करें तो पता चलेगा कि हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार आदि परम्परागत हैं। अचौर्य व्रत के अभ्यास के लिए साधक को बहुत सजग होने की आवश्यकता होगी। उसे प्रतिक्षण पै दृष्टि से देखना होगा कि मेरा अपना क्या है और पराया क्या ? मैं दूसरों की चीजों को अपनी कैसे मान रहा हूं। जब तक वह स्वयं में प्रवेश नहीं करे, तब तक वह उन वस्तुओं और संस्कारों का बहिष्कार करता जाए जो अपनी नहीं हैं, वह एक दिन अचौर्य को उपलब्ध हो जाएगा । संयमेन ३९. कृतध्यानकपाटञ्च, अध्यात्मदत्तपरिघं सुरक्षितम् । ब्रह्मचर्यमनुत्तरम् ॥ ब्रह्मचर्य अनुत्तर धर्म है। संयम - इन्द्रिय और मन के निग्रह द्वारा वह सुरक्षित है। उसकी सुरक्षा का कपाट है ध्यान और उसकी अर्गला है अध्यात्म | ॥ व्याख्या ॥ ब्रह्मचर्य भगवान् है, तपों में उत्तम तप है। ब्रह्मचर्य से देवता अमर बन जाते हैं। अर्थववेद में नेता के लिए ब्रह्मचारी होना आवश्यक माना है। ऐतरेय उपनिषद् में कहा है- शरीर के समस्त अंगों में जो यह तेजस्विता है वह वीर्य जन्य ही है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत व्यापक किया है। ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। कुंदकुंद कहते हैं - 'जो स्त्रियों के सुन्दर अंगों को देखते हुए भी विकार नहीं लाते वे ब्रह्मचारी हैं।' महात्मा गांधी कहते हैं-'ब्रह्मचर्य का अर्थ है समस्त इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण और मन, वचन, कृत्य द्वारा लोलुपता से मुक्ति । ' ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति पर ध्यान देने से ये सारे अर्थ उसी में सन्निहित हो जाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है - आत्मा या परमात्मा । उसमें विचरण करने वाला ही वास्तविक ब्रह्मचारी है। जब आत्म-विहार से व्यक्ति बाहर चला जाता है तब नं ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहता है, न अहिंसा और न ध्यान । ४०. कृताकम्पमनोभावो, भावनानां विशोधकः । सम्यक्त्व शुद्धमूलोऽस्ति, धृतिकन्दोऽपरिग्रहः ॥ अपरिग्रह से मन की चपलता दूर हो जाती है, भावनाओं का शोधन होता है। उसका शुद्ध मूल है सम्यक्त्व और धैर्य उसका कन्द है। ॥ व्याख्या ॥ अनैतिकता का मुख्य हेतु है- अर्थ - लिप्सा । भीष्म पितामह ने इसी कटु सत्य को यों सामने रखा है - हे युधिष्ठिर ! तुम्हारा कहना अनुचित नहीं है कि आप धर्म को छोड़ अधर्म की ओर क्यों चले गए? मैं बताऊ तुम्हें, मनुष्य अर्थ का दास है, किंतु अर्थ किसी का दास नहीं है। अर्थ के प्रलोभन ने ही मुझे कौरवों का पक्षपाती बना दिया । परिग्रह अनर्थ की धुरा है। मानसिक मलिनता को परिग्रह में आसक्त व्यक्ति छोड़ नहीं सकता। सच्चाई यह है कि पवित्रता, स्थैर्य, शुद्धि और धैर्य का निवास अपरिग्रह में है। असंतुष्ट व्यक्ति बार-बार उत्पन्न होता है और मरता है, भले फिर वह इन्द्र भी क्यों न हो । सुख आवश्यकताओं को बढ़ाने में नहीं है। मनुष्य जितना स्व-सीमा में रहता है उतना ही वह सुखी और शांत रहता है। सीमा का अतिक्रमण अशांति को उत्पन्न करता है। परिग्रह स्व नहीं, पर है। वह सहायक है, किंतु सर्वेसर्वा नहीं। वह शरीर की भूख है न कि आत्म चेतना की । इस विवेक पर चलने वाला उससे चिपका नहीं रहता । न वह शोषण करता है और न अनावश्यक संग्रह। महाभारत में कहा है भ्रियते यावज्जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिकं योऽभिमन्येत से स्तेनो दंडमर्हति ॥ - जितना पेट भरने के लिए आवश्यक होता है, वही व्यक्ति का अपना है-व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए। जो इससे ज्यादा संग्रह करता है वह चोर है, दंड का भागी है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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