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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३.
मेघः प्राह ४१.किं नाम भगवन्! धर्मः, कस्मै तस्याऽनिवार्यता।
विद्यते तस्य को लाभः, जिज्ञासाऽसौ निसर्गजा॥
मेघ बोला-भगवन्! धर्म क्या है? उसकी अनिवार्यता क्यों है? उसका लाभ क्या है? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है।
भगवान् प्राह ४२. चैतन्यानभवो धर्मः सोपानं प्रथमं व्रतम्।
तपसा संयमेनासौ, साध्योऽस्ति सकलैर्जनैः॥
भगवान् ने कहा-धर्म है चैतन्य का अनुभव। उसका प्रथम सोपान है व्रत। उसकी साधना के दो हेतु हैं-तप और संयम।
४३. आसक्तिं जनयत्याशु, वस्तुभोगो हि देहिनाम्।
जीवनं वस्तुसापेक्षं, समस्या महती ध्रुवम्॥
पदार्थ का भोग आसक्ति उत्पन्न करता है और जीवन पदार्थ-सापेक्ष है, यह महान् समस्या है।
४४. आसक्तिर्यावती पुंसां तावान् भावात्मको ज्वरः।
भावात्मको ज्वरो यावान्, तावान् तापो हि मानसः॥
जितनी आसक्ति उतना भावनात्मक तनाव। जितना भावात्मक तनाव, उतना मानसिक तनाव या मानसिक दुःख।
४५.चैतन्यानुभवो यावान्, अनासक्तिश्च तावती।
यावती स्यादनासक्तिः, तावान् भावः प्रसादयुक्॥
जितनी चेतना की अनुभूति उतनी अनासक्ति, जितनी अनासक्ति उतनी भावात्मक प्रसन्नता।
४६.यावान् भावप्रसादः स्याद्, तावद् मनो हि निर्मलम्।
नैर्मल्यं मनसो यावद्, तावत् स्याद् सहजं सुखम्॥
जितनी भावनात्मक प्रसन्नता है, उतनी मानसिक निर्मलता है। : जितनी मानसिक निर्मलता है, उतना सहज सुख है।
॥ व्याख्या ॥
धर्म का तत्त्व सहज, सुगम होते हुए भी जटिल बना हुआ है। इसका कारण है-उसे बुद्धि के द्वारा व्याख्यात किया जाता है, मन और बुद्धि के द्वारा ही सुना जाता है और ग्रहण किया जाता है। यह है अनुभूति द्वारा गम्य, या प्रज्ञा के द्वारा ज्ञेय है। बुद्धि स्वयं अस्थिर है-वह विकल्पों को पैदा करती है। धर्म है निर्विकल्प। धर्म को जानने के लिए सब बुद्धि के द्वारा प्रयत्न करते हैं। इसलिए उसका सही समाधान नहीं होता।
मेघ की जिज्ञासा भी इसी की द्योतक है। धर्म क्या है ? धर्म की अनिवार्यता क्यों और धर्म का लाभ क्या है?
धर्म क्या है? इसका उत्तर अलग-अलग रूपों में मिलता है। लौकिक धर्म की व्याख्या भिन्न है और अलौकिक-आध्यात्मिक धर्म की परिभाषा अलग है। फिर भी दोनों का सम्मिश्रण हो जाता है। सम्मिश्रण के कारण संशय उत्पन्न होता है। यदि दोनों के बीच का अंतर स्पष्ट हो तो यह भ्रांति नहीं रहती किन्तु यह भी कम संभव है। सामान्य लोगों के लिए यह अंतर् सहजगम्य होना भी मुश्किल है।
भगवान् महावीर ने धर्म की संक्षेप परिभाषा देते हुए कहा-चैतन्य का अनुभव धर्म है। जिस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति स्वयं के अस्तित्व का अनुभव कर सके, वह धर्म है। अपना अनुभव, अपना बोध, अपना ज्ञान धर्म है। धर्म का समग्र बल इस पर है कि व्यक्ति अपने को जाने 'मैं कौन हूं?' इसका प्रथम चरण है-व्रत। व्रत का कार्य है-अपने भीतर आने वाले विजातीय तत्त्व के द्वार को रोकना। जैसे-जैसे विजातीय तत्त्व का द्वार बंद हो जाता है वैसे-वैसे व्यक्ति अपने निकट पहुंचता चला जाता है। विजातीय तत्त्व का आवागमन इतनी तीव्रता से होता रहता है कि साधारण-असाधारण व्यक्तियों की समझ से परे ही रहता है। आदमी के संस्कार उसे भीतर आने से दूर ही रखता है। वह राग और द्वेष इन दो प्रवृत्तियों में ही उलझा रहता है। चैतन्य के अनुभव में ये दोनों परम बाधक हैं।