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________________ संबोधि २२५ अ. ७: आज्ञावाद व्रत-संयम और तप इन दोनों को नियंत्रित करते हैं राग का अर्थ है-आसक्ति और द्वेष का अर्थ है अप्रिय पदार्थों के प्रति घृणा, अरुचि । प्रिय विषयों में रुचि राग है। जीवन पदार्थों से मुक्त नहीं हो सकता है। वह पदार्थ सापेक्ष है। पदार्थों का भोग आसक्ति उत्पन्न करता है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने आसक्ति को और अधिक बद्धमूल करने में अपनी भूमिका निभाई है और निभा रही है। आकर्षक पदार्थों के निर्माण के पीछे व्यक्ति के भीतर छिपे राग- आसक्ति को उत्तेजित करना ही है। नये नये रूपों में जिस प्रकार पदार्थों की संयोजना हो रही है उसी प्रकार व्यक्ति का मन भी दूषित व प्रलुब्ध हो रहा है। इससे न शांति और न सुख हाथ लगता है। पदार्थों की सामग्री व उनके प्रति आकर्षण से शांति और सुख का कहीं वास्ता नहीं है पदार्थ सापेक्ष शांति व सुख का स्थायित्व भी कितना होता है? और उस सुख से मिलने वाला सुख भी कितना होता है? इससे यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि शाश्वत, स्थायी सुख का संबंध पदार्थों से नहीं है नश्वर पदार्थ स्थायी सुख का हेतु भी कैसे बन सकता है? इस अनुभूति ने ही अनासक्ति को जन्म दिया। भगवान ने इस समस्या के समाधान में कहा कि तुम पदार्थों से निरपेक्ष नहीं हो सकते, किन्तु आसक्ति से मुक्त हो सकते हो। पदार्थों के साथ जुड़ना-बंधना या न बंधना यह तुम्हारे हाथ में है। तुम इस कला में पारंगत हो जाओ कि पदार्थों का भोग करते हुए भी उनके साथ लगाव नहीं रखना दुःख पदार्थों के साथ लगाव का ही है जितना गहरा लगाव या अटेचमेंट - जुड़ना है उतना ही अधिक तनाव, ताप तथा ऊष्मा है। आसक्ति ही व्यक्ति को दुःखी बनाती है। वह आसक्ति चेतन पदार्थ के प्रति हो या अचेतन के प्रति । वर्तमान युग इसका ज्वलन्त उदाहरण है। तनाव समस्या सर्जन करता है। तनाव विविध रोग उत्पन्न करता है। इसका समाधान अनासक्ति है। भोग के साथ जो प्रियता अप्रियता का योग बनता है, उससे ही अपनी चेतना को दूर रखना है। इसका प्रयोग है - संयम तथा तप । चेतना को अलग रखना तपस्या है। यह कठिन नहीं, किन्तु अभ्यास साध्य होती है। अनासक्त रहने का संकल्प ही धीरे-धीरे भावना को पुष्ट करता है और जागृति को सशक्त बनाता है। उसकी परिणति चेतना की अनुभूति में होती है उसके बाद अनासक्ति स्वतः सिद्ध हो जाती है। एक चेतना की आसक्ति अन्य समस्त आसक्तियों को उखाड़ फेंकती है। गीता, भागवत आदि में जहां अनन्यचेता की बात कही है वही बात चेतना की अनुभूति की है। चेतना की अनुभूति अनासक्ति बढ़ाती है, अनासक्ति से भावधारा निर्मल होती है। मन प्रसन्न होता है और आनंद की धारा सहज ही प्रस्फुटित हो जाती है। धर्म क्यों अनिवार्य है ? . धर्म की प्रासंगिकता सदैव अपरिहार्य रही है। धर्म है तो व्यवस्था है, धर्म है तो स्वच्छता है। यह स्वर हमारे कानों में सदा टकराता रहा है कि 'धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।' धर्म से हीन जीवन पशु तुल्य है। अध्यात्म दृष्टि से धर्म की उपादेयता असंदिग्ध है तो व्यवहार दृष्टि से भी असंदिग्ध है। धर्म चेतना को रूपांतरित करता है। व्यक्ति की भावधारा को बदलता है, व्यक्ति का कर्म विशुद्ध बनता है उसका अंतःकरण निर्मल बन जाता है। उसके प्रत्येक कर्म में धर्म की झलक प्रतीत होने लगती है। सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक, वैयक्तिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। धर्म उन सब पर नियंत्रण करता है। एक धार्मिक व्यक्ति कभी अनैतिक, अप्रामाणिक, भ्रष्ट आचरण वाला, दूसरों का शोषण करने वाला, दूसरों को दुःख देने वाला, असत्य, मायावी, हिंसक, क्रूरकर्मा नहीं हो सकता है। इस दृष्टि से धर्म की अनिवार्यता को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। धर्म होगा तो मानव-मानव के मध्य न खाइ होगी, न घृणा और न ऊंच-नीच का भाव होगा । धर्म का क्या लाभ है ? धर्म का मौलिक लाभ है - आत्मशांति। सभी संतों, ऋषियों, अर्हतों ने शांति के लिए अपना जीवन समर्पित किया था, शास्त्रों की संरचना भी शांति के लिए है वह जिसमें है, उसे किसी बाह्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं है। धर्म का उद्देश्य बाह्य पदार्थों की पूर्ति करना नहीं है वह तो स्वभाव को उजागर करता है। शांति स्वभाव है। चेतना का धर्म है। इसलिए कहा है
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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