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आत्मा का दर्शन
खण्ड-४
वंतासी पुरिसो रायं! न सो होइ पसंसिओ। तब महारानी कमलावती ने कहा-राजन् ! वमन खाने माहणेण परिच्चत्तं धणं आदाउमिच्छसि॥ वाले पुरुष की कभी प्रशंसा नहीं होती। आप ब्राह्मण के
द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हैं। यह क्या है? सव्वं जगं जइ तुहं सव्वं वावि धणं भवे। यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन सव्वं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव॥ तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए.
पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा। मरिहिसि रायं! जया तया वा
राजन् ! इन मनोरम काम-भोगों को छोड़कर जब कभी मणोरमे कामगुणे पहाय। मरना होगा। हे नरदेव! एक धर्म ही त्राण है। उसके एक्को हु धम्मो नरदेव! ताणं
सिवाय कोई दूसरी वस्तु त्राण नहीं दे सकती। न विज्जई अन्नमिहेह किंचि॥ नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा
जैसे पक्षिणी पिंजरे में आनंद नहीं मानती, वैसे ही संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं। मुझे इस बंधन में आनंद नहीं मिल रहा है। मैं स्नेह के अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा
जाल को तोड़कर अकिंचन, सरल क्रियावाली, परिग्गहारंभनियत्तदोसा॥ विषयवासना से दूर और परिग्रह एवं हिंसा के दोषों से
मुक्त होकर मुनिधर्म का आचरण करूंगी। दवग्गिणा जहा रण्णे डज्झमाणेसु जंतुसु। जैसे दवाग्नि लगी हुई है, अरण्य में जीव जन्तु जल अन्ने सत्ता पमोयंति रागहोसवसं गया॥ रहे हैं, उन्हें देख रागद्वेष के वशीभूत होकर दूसरे जीव
प्रमुदित होते हैं। . एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया। उसी प्रकार कामभोगों में मूर्छित होकर ह्म मूढ़ लोग डज्झमाण न बुज्झामो रागहोसग्गिणा जगं॥ यह नहीं समझ पाते कि यह समूचा संसार रागद्वेष की
अग्नि से जल रहा है। गिदोवमे उ नच्चाणं कामे संसारवडढणे। गीध की उपमा से काम-भोगों को संसार-वर्धक उरगो सुवण्णपासे व संकमाणो तणुं चरे॥ जानकर मनुष्य को इनसे इसी प्रकार शंकित होकर चलना
चाहिए, जिस प्रकार गरुड़ के सामने सांप शंकित होकर
चलता है। नागो व्व बंधणं छित्ता अप्पणो वसहिं वए। जैसे बंधन को तोड़कर हाथी अपने स्थान एवं पत्थं महारायं! उसुयारि त्ति मे सुयं॥ (विंध्याटवी) में चला जाता है, वैसे ही हमें अपने स्थान
(संयम) में चले जाना चाहिए। हे महाराज इषुकार! यह
पथ्य है, इसे मैंने ज्ञानियों से सुना है। चइत्ता विउलं रज्जं कामभोगे य दुच्चए। महारानी कमलावती का उपदेश सुन राजा इषुकार निव्विसया निरामिसा निन्नेहा निप्परिग्गहा॥ प्रबुद्ध हो गया। वे दोनों विपुल राज्य और दुष्त्यज काम
भोगों को छोड़ निर्विषय, अनासक्त, निर्मोह और
अपरिग्रही हो गए।
अपरिग्रह : अनासक्ति ५७.जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं, खेत्तवत्थु भूमि और घर में ममत्व रखने वाले अविद्यावान ममायमाणाणं।
मनुष्यों को विपुल समृद्धिपूर्ण जीवन प्रिय होता है।