SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ.१: समत्व प्रायोगिक दर्शन . ५८.आरतं विरतं मणिकुंडल-सहहिरण्णेण, . इत्थियाओ परिगिज्म तत्येव रत्ता। वे रंग-बिरंगे मणि, कुंडल, हिरण्य और स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त हो जाते हैं। ५९.ण एत्य तवो, दमो वा, णियमो वा विस्सति। जहां परिग्रह की आसक्ति है वहां न तप होता है, न दम (इंद्रिय-निग्रह) और न नियम। ६०.संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासुवेह। . अज्ञानी पुरुष ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की कामना करता है। वह बार-बार सख की कामना करता है। इस प्रकार वह अपने द्वारा कृत कामना की व्यथा से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy