SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संबोधि ३४९ अ. १४ : गृहस्थ- धर्म - प्रबोधन उपासक चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी आदि पर्व दिनों में प्रतिपूर्ण पौषध करता है परन्तु 'एकरात्रिक उपासक प्रतिमा का अनुगमन नहीं करता। दिन मैं ब्रह्मचारी (कायोत्सर्ग प्रतिमा) : यह पांचवी प्रतिमा है। इसका कालमान पांच महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक 'एकरात्रिकी उपासक प्रतिमा' का सम्यक् अनुपालन करता है तथा स्नान नहीं करता, दिवाभोजी होता है, धोती के दोनों अंचलों को कटिभाग में टांक लेता है-नीचे से नहीं बांधता, दिवा ब्रह्मचारी और रात्रि में अब्रह्मचर्य का परिमाण करता है। दिन और रात में ब्रह्मचारी यह छठी प्रतिमा है। इसका कालमान छह महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक दिन और रात में ब्रह्मचारी रहता है। किन्तु सचित्त का परित्याग नहीं करता। सचित्त परित्यागी : यह सातवीं प्रतिमा है। इसका कालमान सात महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सम्पूर्ण सचित्त का परित्याग करता है, किन्तु आरंभ का परित्याग नहीं करता । आरंभ- परित्यागी : यह आठवीं प्रतिमा है। इसका कालमान आठ महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक आरंभ - हिंसा का परित्याग करता है, किंतु प्रेष्यारंभ का परित्याग नहीं करता । प्रेष्य-परित्यागी यह नौवीं प्रतिमा है। इसका कालमान नौ महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक प्रेष्य आदि हिंसा का परित्याग करता है, किंतु उद्दिष्टभक्त का परित्याग नहीं करता। उरिष्टभक्त परित्यागी यह दसवीं प्रतिमा है। इसका कालमान दस महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक उद्दिष्ट भोजन का परित्याग करता है। वह सिर को क्षुर से मुंडवा लेता है या चोटी रख लेता है। घर के किसी विषय में पूछे जाने पर जानता हो तो कहता है- मैं जानता हूं और न जानता हो तो कहता है-मैं नहीं जानता।' 6 श्रमण-भूत यह ग्यारहवीं प्रतिमा है। इसका कालमान ग्यारह महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सिर को क्षुर से मुंडवा लेता है या लुंचन करता है। वह साधु का वेश धारण कर ईर्यासमिति आदि साधु-कर्मों का अनुपालन करता हुआ विचरण करता है। वह भिक्षा के लिए गृहस्थों के घरों में प्रवेश कर 'प्रतिमा सम्पन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो' - ऐसा कहता है। यदि कोई उससे पूछे कि 'तुम कौन हो ?' तो वह यह कहता है- 'मैं प्रतिमा सम्पन्न श्रमणोपासक हूं।' प्रायः वे लोग इनका स्वीकरण करते हैं : १. जो अपने आपको श्रमण बनने के योग्य नहीं पाते किन्तु जीवन के अंतिम काल में श्रमण-जैसा जीवन बिताने के इच्छुक होते हैं। २. जो श्रमण जीवन बिताने का पूर्वाभ्यास करते हैं। साधक गृहस्थ जैसे-जैसे अपने साधना - अभ्यास में सफल, प्रसन्न और आनंदित हो जाता है वैसे-वैसे ममत्व, आसक्ति और भ्रांति के क्षीण होने पर सत्य की दिशा में तीव्रगति से बढ़ने को आतुर हो जाता है साध्य-धर्म के
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy