SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ A संबोधि ३४५ ही यदि हिंसा आदि का कारण मानें तो वह सबके सदा नहीं होती । व्यक्ति उसके अभाव में अहिंसक बन सकता है। यह स्थूल दोनों स्थूल सत्य है, वास्तविक नहीं। सूक्ष्म सत्य वही है जहां अविरति का त्याग है। अविरति के त्याग में सूक्ष्म और ही प्रवृत्तियां विशुद्ध हो जाती हैं। प्रश्न यह होता है कि इस प्रकार की साधना में प्रवृत्त व्यक्ति के मन में क्या दुष्प्रवृत्ति कभी नहीं आती? यदि आती है तो फिर वह अहिंसक कैसे हो सकता है ? ३९. इतस्ततः प्रसर्पन्ति, जना लोभविलाशयाः । तेन दिविरतिः कार्या गृहिणा धर्मचारिणा ॥ अ. १४ गृहस्थ धर्म-प्रबोधन अहिंसक का साध्य विशुद्ध आत्मा है वह लक्ष्य से जब भटक जाता है, तब दुष्प्रवृत्ति का शिकार हो जाता है। लेकिन वह उसका साध्य नहीं है। अतः वह पुनः अपने मार्ग में लौट आता है। उस प्रवृत्ति के प्रति उसका मन ग्लानि से भर जाता है, वह शुद्ध हो जाता है। इससे उसके साध्य में कोई अंतर नहीं आता। किन्तु जो अविरत है वह कभी मुनि नहीं बन सकता। अविरत की सत् प्रवृत्ति अच्छी है, आत्मोन्मुखी है। लेकिन वह सर्वथा विरत नहीं है। अतः सत् प्रवृत्ति वाला होते हुए भी मुनि नहीं कहला सकता। सांधुत्व के लिए एक ही मार्ग है और वह है अविरति-त्याग । गृहस्थ के लिए यह अपेक्षित है कि वह मन, वाणी और शरीर को सत् की ओर लगाये। योगों की सरलता, समता और शालीनता धार्मिक साधना की कसौटी है। वह अनर्थ हिंसा, झूठ, चोरी आदि से बचे और आवश्यक हिंसा आदि में भी मन को अनासक्त रखे, जिससे सहज में ही कर्म- बंधनों के प्रगाढ़ लेप से बच सके। - ३२. उपभोगः पदार्थानां मोहं नयति देहिनः । भोगस्य विरतिः कार्या तेन धर्मस्पृशा विशा ॥ ॥ व्याख्या || पांच अणुव्रतों में स्थूल रूप से मर्यादा की जाती है। विश्व विशाल है। मन की आकांक्षाएं भी विशाल हैं। आकांक्षा का संवरण करने के लिए व्यक्ति क्षेत्र (स्थान) का भी संवरण करे। मर्यादावान् व्यक्ति अपने सीमित क्षेत्र से बाहर व्यापार आदि नहीं करता। यह मन पर एक बहुत बड़ा नियंत्रण है अपनी त्याग वृत्ति के अनुसार पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर हर तरह के सावध कार्यों से निवृत्ति करना दिग्विरति व्रत है । लोभी मनुष्य अर्थार्जन के लिए इधर-उधर सुदूर प्रदेश तक जाते हैं इसलिए धार्मिक गृहस्थ को दिविरति दिशाओं में गमनागमन का परिमाण करना चाहिए। ३३. कल्पनाभिः प्रमादेन, दण्डः प्रयुज्यते जनैः । अनर्थदण्डविरतिः कार्या धर्मस्पृशा विशा ॥ ॥ व्याख्या ॥ मनुष्य का जीवन सीमित है, लेकिन भोग्य पदार्थ सीमित नहीं हैं वह स्वल्प जीवन में असीमित पदार्थों का भोग नहीं कर सकता। - पदार्थों का भोग मनुष्य को मोह में डालता है इसलिए धार्मिक पुरुष को भोग की विरति करनी चाहिए, उसका परिमाण करना चाहिए। अतृप्ति उसे सदा सताती रहती है। भर्तृहरि ने कहा है- ' भोगों को हमने नहीं भोगा किन्तु भोगों ने हमें भोग लिया है। हमने तप नहीं किया किन्तु बिना तप किए हम तप्त हो गए। काल नहीं आया, हम काल के निकट पहुंच गए हैं और तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, हम जीर्ण हो गए।' अतृमि दुःख है और संतोष सुख । जैन दर्शन में पन्द्रह प्रकार के कर्मादान और छब्बीस प्रकार के भोगोपभोग का वर्जन है। इनकी प्रवृत्ति में मर्यादा करना - परिमाण करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है । मनुष्य अनेक प्रकार की कल्पनाओं और प्रमाद के वशीभूत को होकर दंड हिंसा का प्रयोग करता है। धार्मिक पुरुष अनर्थदंड-अनावश्यक हिंसा से निवृत्त होना चाहिए।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy