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प्रायोगिक दर्शन
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अ. १२ : आत्मवाद
भंते! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंधन कैसे करते
कहण्णं भंते! जीवा कंखामोहणिज्जं कम्म बंधंति? गोयमा! पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च।
सेणं भंते! पमादे किंपवहे? गोयमा! जोगप्पवहे। से णं भंते! जोए किंपवहे? गोयमा! वीरियप्पवहे। से णं भंते! वीरिए किंपवहे? गोयमा! सरीरप्पवहे। से णं भंते! सरीरे किंपवहे? गोयमा! जीवप्पवहे। एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार-परम्कमेइ वा।
गौतम! उसके दो कारण हैं-प्रत्यय हेतु-प्रमाद और निमित्त हेतु-योग।
भंते! प्रमाद की प्रवृत्ति किससे होती है ? गौतम! प्रमाद की प्रवृत्ति का स्रोत है-योग। भंते! योग की प्रवृत्ति किससे होती है? गौतम! योग की प्रवृत्ति का स्रोत है-वीर्य। भंते! वीर्य की प्रवृत्ति किससे होती है? गौतम! वीर्य की प्रवृत्ति का स्रोत है-शरीर। भंते! शरीर की प्रवृत्ति किससे होती है ? गौतम! शरीर की प्रवृत्ति का स्रोत है-जीव।
इस प्रकार कांक्षामोहनीय कर्मबंध का कारण हैउत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम।
आत्मकर्तृत्व और नियतिवाद श्रमणोपासक कुंडकौलिक ७५.तए णं समणे भगवं महावीरे कुंडकोलियस्स श्रमण भगवान महावीर ने श्रमणोपासक कुंडकौलिक
समणोवासयस्स तीसे य महइमहालियाए परिसाए और विशाल परिषद् के बीच धर्म का आख्यान किया। - जाव धम्म परिकहेइ।
कुंडकोलियाइ! समणे भगवं महावीरे कुंडकोलियं श्रमण भगवान महावीर ने कुंडकौलिक श्रमणोपासक समणोवासयं एवं वयासी से नूणं कुंडकोलिया! को संबोधित करते हुए कहा-कुंडकौलिक! कल अपराह्न कल्लं तुम्भं पच्चावरण्हकालसमयंसि असोग- के समय तुम्हारे सामने अशोकवनिका में एक देव प्रकट वणियाए एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था।
हुआ। तए णं से देवे नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च उस देव ने पृथ्वी शिलापट्ट से एक नामांकित मुद्रिका पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हइ, गेण्हित्ता अंतलि. और उत्तरीय ग्रहण किया। वह अंतरिक्ष में स्थित हुआ। क्खपडिवण्णे सखिखिणियाई पंचवण्णाई वत्थाइं धुंधरू लगे पंचवर्णी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए देव ने कहापवरपरिहिए तुमं एवं वयासी-हं भो! कुंडकोलिया! श्रमणोपासक कुंडकौलिक! मंखलिपुत्र गोशालक की यह समणोवासया! सुंदरी णं देवाणुप्पिया! गोसालस्स धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर है-'उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, मंखलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती नत्थि उट्ठाणे इ वा पराक्रम, कुछ नहीं है। सब भाव नियत हैं।' श्रमण कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कार- भगवान महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर नहीं है। वे मानते परक्कमे इ वा। नियता सव्वभावा। मंगुली णं हैं-'उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम सब कुछ समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती- हैं। सब भाव अनियत है।' अत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा परिसक्कार-परक्कमे इ वा। अणियता
सव्वभावा। .तए णं तुमं तं देवं एवं वयासी-जइ णं तब तुमने उस देव से कहा-देवानप्रिय! यदि