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________________ आत्मा का दर्शन ५९८ खण्ड-8 ६६. एवं च चिंतइत्ताणं पसुत्तो मि नराहिवा! हे नराधिप! ऐसा चिंतन कर मैं सो गया। बीतती हुई परियटतीए राईए वेयणा मे खयं गया। रात्रि के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो गई। ६७.तओ कल्ले पभायम्मि आपुच्छित्ताण बंधवे। खंतो दंतो निरारंभो पव्वइओऽणगारियं॥ उसके पश्चात् मैं प्रभातकाल में स्वस्थ हो गया। मैं अपने बंधुजनों को पूछ क्षांत, दांत और निरारंभ होकर अनगार वृत्ति में आ गया। ६८.ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य। तब मैं अपना और दूसरों का रस और स्थावर सब सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाणं थावराण य॥ जीवों का नाथ हो गया। आत्मकर्तृत्व के कुछ पहलू ६९.अप्पा णई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही. कूटअप्पा कामदहाधेण अप्पा मे नंदणं वणं॥ शाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नंदनवन है। ७०.अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। आत्मा ही दुःख-सुख को करने वाली और उनका अप्पा मित्तममित्तं च दप्पट्ठियसुपट्ठिओ। क्षय करने वाली है। सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है। ७१.न तं अरी कण्ठछेत्ता करेई । ____जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो॥ दुष्प्रवृत्ति जो अनर्थ उत्पन्न करती है वह अनर्थ गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता। वह दुष्प्रवृत्ति करने वाला दया-विहीन मनुष्य मृत्यु के मुख में पहुंचने के समय पश्चात्ताप के साथ इस तथ्य को जान पाएगा। ७२.सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं। प्रमत्त को सब ओर से भय होता है। अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। ७३.कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिसकारणेगंता। मिच्छतं ते चेवा समासओ होति सम्मत्तं॥' ___काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (अदृष्ट) और पुरुषरूप कारण विषयक एकांतवाद मिथ्यात्व अर्थात् अयथार्थ हैं, और वे ही वाद समास से (परस्पर सापेक्ष रूप से) मिलने पर सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थ हैं। भंते! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंधन करते ७४.जीवा णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं बंधति? हंता बंधंति। हां, करते हैं। १. आत्मकर्तृत्ववाद का सिद्धांत एक नय है। प्रत्येक नय सापेक्ष होता है। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ-ये सब नय हैं। इनकी सापेक्षता के द्वारा ही आत्मकर्तृत्ववाद की व्याख्या की जा सकती है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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