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आत्मा का दर्शन ७१८
खण्ड-५ ५३७-५३८. पहिया जे छप्पुरिसा,
छह पथिक थे। जंगल के मध्य जाने पर वे भटक परिभट्ठारण्ण-मज्झ-देसम्हि। गये। भूख सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा फलभरियरुक्खमेगं,
एक वृक्ष दिखाई दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। पेक्खित्ता ते विचिंतंति॥ वे मन ही मन विचार करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को णिम्मूल-खंधसाहु-वसाहं
जड़-मूल से काटकर इसके फल खाये जाएं। दूसरे ने छित्तुं चिणित्तु पडिदाई। सोचा कि केवल स्कंध ही काटा जाए। तीसरे ने विचार खाउं फलाइं इदि,
किया शाखा ही तोड़ना ठीक रहेगा। चौथा सोचने लगा जं मणेण वयणं हवे कम्मं॥ कि उपशाखा (छोटी डाल) ही तोड़ ली जाए। पांचवां
चाहता था कि फल ही तोड़े जाएं। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपककर नीचे गिरे हुए पके फल ही चुनकर क्यों न खाए जाएं। इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमशः छाहों लेश्याओं के उदाहरण हैं।
५३९. चंडो ण मुंचइ वेरं,
भंडणसीलो य धरमदयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं,लक्खणमेयं तु किण्हस्स॥
स्वभाव की प्रचंडता, वैर की मजबूत गांठ, झगड़ालू वृत्ति, धर्म और दया से शून्यता, दुष्टता, समझाने से भी नहीं मानना, ये कृष्णलेश्या के लक्षण हैं।
५४०. मंदो बुद्धिविहीणो,
मन्दता, बुद्धिहीनता, अज्ञान और विषयलोलुपता-ये णिव्विण्णाणी य विसयलोलो य। संक्षेप में नीललेश्या के लक्षण हैं। लक्खणमेयं भणियं, समासदो नीललेस्सस्स।
५४१. रूसइ णिंदइ अन्ने,
दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो। ण गणइ कज्जाकज्ज,लक्खणमेयं तु काउस्स॥
जल्दी ष्ट हो जाना, दूसरों की निन्दा करना, दोष लगाना, ॐ गोकाकुल होना, अत्यंत भयभीत होना-ये कापोतलेश्या के लक्षण हैं।
५४२. जाणइ कज्जाकज्ज,
सेयमसेयं च सव्वसमपासी। दयदाणरदो य मिद्, लक्खणमेयं त तेउस्स॥
कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, सबके प्रति समभाव, दया-दान में प्रवृत्ति-ये तेजोलेश्या के लक्षण हैं।
५४३. चागी भहो चोक्खो,
अज्जव-कम्मो य खमदि बहगं पि साहु-गुरु-पूजणरदो,
लक्खणमेयं तु पम्मस्स॥
त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता, व्यवहार में प्रामाणिकता, कार्य में ऋजुता, अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता, साधु-गुरुजनों की पूजा-सेवा में तत्परता ये पद्मलेश्या के लक्षण हैं।
५४४. ण य कुणइ पक्खवायं,
ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसिं। णत्थि य रायदोसा,
णेहो वि य सुक्कलेस्सस्स।
पक्षपात न करना, भोगों की आकांक्षा न करना, सबमें समदर्शी रहना, राग, द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना-शुक्ललेश्या के लक्षण हैं। .