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________________ समणसुतं . ५३०. बारस अणुवेक्खाओ, आलोयणं समाही, पच्चक्खाणं तहेव पडिक्कमणं । म्हा भावेज्ज अणुवेक्खं ॥ लेश्या सूत्र ५३१. होंति कमविसुद्धाओ, धम्मज्झाणोवगयस्स, ५३२. जोग - पउत्ती लेस्सा, तत्तो दोहं कज्जं, लेसाओ पीयपम्हसुक्काओ । तिव्व - मंदाइभेयाओ ॥ कसाय-उदयाणु-रंजिया होई । बंधचउक्कं समुद्दिट्ठं । ५३३. किण्हा णीला काऊ, ७१७ तेऊ पहाय सुक्कलेस्सा य । लेस्साणं णिसा, छच्चेव हवंति णियमेण ॥ ५३४. किण्हा नीला काऊ, ५३५. तेऊ पम्हा सुक्का, तिणि वि एयाओ अहम्मलेसाओ । एयाहि तिहिं वि जीवो,दुग्गइं उववज्जई बहुसो ॥ तिणि वि याओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहिं वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई बहुसो ॥ १३६. तिव्वतमा तिव्वतरा, मंदतरा मंदतमा, अ. २ : मोक्षमार्ग अतः बारह अनुप्रेक्षाओं का तथा प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना एवं समाधि का बार-बार चिन्तन करते रहना चाहिए। तिव्वा असुहा सुहा तहा मंदा । छट्ठाणगया हु पत्तेयं ॥ लेश्या सूत्र धर्मध्यान से युक्त मुनि के क्रमशः विशुद्ध पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं होती हैं। इन लेश्याओं के तीव्र - मंद के रूप में अनेक प्रकार हैं। कषाय के उदय से अनुरंजित मन-वचन-काय की योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इन दोनों अर्थात् कषाय और योग का कार्य है चार प्रकार का कर्म बंध। कषाय से कर्मों के स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं, योग से प्रकृति और प्रदेश- बंध। लेश्या के छह प्रकार हैं- कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । कृष्ण, नील और कापोत ये तीनों अधर्म लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव अनेक वार दुर्गति को प्राप्त होता है । जो, पद्म और शुक्ल ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव अनेक वार सद्गति को प्राप्त होता है। कृष्ण, नील और कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं में से प्रत्येक के तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र ये तीन भेद होते हैं। शेष तीन शुभ लेश्याओं में से प्रत्येक के मंद, मन्दतर और मंदतम ये तीन भेद होते हैं। तीव्र और मंद की अपेक्षा से प्रत्येक में अनन्त भाग- वृद्धि, असंख्यात भाग- वृद्धि, संख्यात भाग-वृद्धि, संख्यात गुण- वृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, अनन्त गुण-वृद्धि ये छह वृद्धियां और इन्हीं नाम की छह हानियां सदैव होती रहती हैं। इसी कारण लेश्याओं के भेदों में भी उतार-चढाव होता रहता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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