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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-५
क्या सुख हो सकता है?
५२२. एदे मोहय-भावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो।
हेयं ति मन्नमाणो आसवअणुवेहणं तस्स।
मोह के उदय से उत्पन्न होनेवाले इन सब भावों को त्यागने योग्य जानकर उपशम (साम्य) भाव में लीन मुनि इनका त्याग कर देता है। यह उसकी आस्रव अनुप्रेक्षा है।
५२३. मण-वयण-काय-गुत्तिं
दियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स। आसवदारणिरोहे, णवकम्मरयासवो ण हवे॥
तीन गुप्तियों के द्वारा इन्द्रियों को वश में करनेवाला तथा पंच समितियों के पालन में अप्रमत्त मुनि के आस्रव द्वारों का निरोध हो जाने पर नवीन कर्म-रज का आगमन नहीं होता है। यह संवर अनप्रेक्षा है।
५२४. णाऊण लोगसारं, णिस्सारं दीहगमणसंसारं।
लोयग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सहवासं॥
लोक को निःसार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुक्तिपद का ध्यान करता है, जहां मुक्त (सिद्ध) जीव सुखपूर्वक सदा निवास करते हैं।
५२५. जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं॥
जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते-ड्रबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है। .
५२६. माणुस्सं विग्गहं लधु, सुई धम्मस्स दुल्लहा।
जं सोच्चा पडिवज्जति, तवं खंतिमहिंसयं॥
मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण और भी कठिन है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त किया जाए।
५२७. आहच्च सवणं ल , सद्धा परमदुल्लहा।
सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सइ।
कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाये, तो उस पर श्रद्धा होना महा कठिन है। क्योंकि बहुत से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते हैं।
५२८. सुइं च लधु सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं।
बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए॥
धर्म-श्रवण तथा (उसके प्रति श्रद्धा हो जाने पर भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यंत दुर्लभ है। बहुत-से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यकप से स्वीकार नहीं कर पाते।
५२९. भावणाजोग-सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया।
नावा व तीरसंपण्णा, सव्वदुक्खा तिउट्टइ॥
भावना-योग से शुद्ध आत्मा को जल में नौका के समान कहा गया है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा पाकर नौका किनारे पर पहुंच जाती है, वैसे ही शुद्ध आत्मा संसार के पार पहुंचती है, जहां उसके समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है।