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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-५
२८१. अब्भंतर-सोधीए,बाहिर-सोधी वि होदि णियमेण।
अब्भंतर-दोसेण ह. कणदि णरो बाहिरे दोसे॥
आभ्यन्तर-शुद्धि होने पर बाह्य शुद्धि भी नियमतः होती है। आभ्यन्तर दोष से ही मनुष्य बाह्य दोष करता है।
२८२.मद-माण-माय-लोह-विवज्जिय-भावो दु भावशुद्धि त्ति।
परिकहियं भव्वाणं, लोया-लोय-प्पदरिसीहिं॥
मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है। लोक-अलोक के द्रष्टा अर्हतों ने ऐसा कहा है।"
२८३. चत्ता पावारंभ,
समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि। ण जहदि जदि मोहादी,
ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं॥
पाप-आरंभ (प्रवृत्ति) को त्यागकर शुभ अर्थात् व्यवहार-चारित्र में आरूढ रहने पर भी यदि जीव मोह आदि भावों से मुक्त नहीं होता, वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं होता।
२८४. जह व णिरुद्धं असुहं,
सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण। तम्हा एण कमेण य,
जोई झाएउ णिय-आदं॥
जैसे शुभ चारित्र के द्वारा अशुभ (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है, वैसे ही शुद्ध (उपयोग) के द्वारा शुभ (प्रवृत्ति) का निरोध किया जाता है। अतएव इसी क्रम से व्यवहार और निश्चय के पूर्वापर क्रम से योगी अपनी आत्मा का ध्यान करे।
२८५. निच्छय-नयस्स चरणाय
विधाए नाण-दसण-वहोऽवि। ववहारस्स उ चरणे,
हयम्मि भयणा हु सेसाणं॥
निश्चय-नय के अनुसार चारित्र-आत्मा (भाव शुद्धि) का विघात होने पर ज्ञान-दर्शन का भी विनाश हो जाता है, परन्तु व्यवहार नय के अनुसार चारित्र का विघात होने पर ज्ञान-दर्शन का विनाश हो भी सकता है, नहीं भी। (वस्तुतः ज्ञान-दर्शन की व्याप्ति भाव शुद्धि के साथ है, बाह्य क्रिया के साथ नहीं।)
२८६. सद्धं नगरं किच्चा, तव-संवरमग्गलं।
खंतिं निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पघंसयं॥
(नमि राजर्षि ने कहा-) 'श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा या सहिष्णुता को त्रिगुप्त-बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय मन-वचन-काय गुप्ति से सुरक्षित दुर्जेय और सुरक्षा-निपुण परकोटा बनाओ।
२८७. तव-नाराय-जुत्तेण, भेत्तूणं कम्म-कंचुयं।
मुणी विगय-संगामो, भवाओ परिमुच्चए॥
तप रूप बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म-कवच को भेद डाले। इस प्रकार संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है।
साधना सूत्र
साधना सूत्र २८८. आहारासण-णिहाजयं,
च काऊण जिणवर-मएण। झायव्यो णिय-अप्पा
झाऊणं गुरु-पसाएण॥
अर्हत् की साधना-पद्धति के अनुसार आहार, आसन तथा निद्रा पर विजय प्राप्त करने का ज्ञान गुरु-प्रसाद से प्राप्त कर निज आत्मा का ध्यान करना चाहिए।