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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-५
१९८. सुह-परिणामो पुण्णं,
असुहो पाव त्ति भणियमन्नेसु। परिणामो णन्नगदो,
दुक्खक्खय-कारणं समये॥
जिन प्रवचन के अनुसार पर द्रव्य के प्रति होने वाला शुभ परिणाम पुण्य और अशुभ परिणाम पाप कहलाता है। अनन्यगत (-आत्म-स्वरूप में होने वाला) परिणाम दुःखों के क्षय का कारण होता है।
१९९. पुण्णं पिजो समिच्छदि,संसारो तेण ईहिदोहोदि।
पुण्णं सुगई-हेहूँ, पुण्ण-खएणेव णिव्वाणं॥
जो पुण्य की इच्छा करता है वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु (अवश्य) है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।
२००. कम्ममसुहं कुसीलं,
अशुभ कर्म कुशील और शुभ कर्म सुशील के रूप में सुह-कम्मं चावि जाण व सुसील।। माना जाता है। किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है कह तं होदि सुसीलं,
जो संसार में प्रविष्ट कराता है? जं संसारं पवेसेदि॥
२०१. सोवणियं वि णियलं,
बंधदि कालायसं पिजह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं,
सुहमसुहं वा कदं कम्मं॥
बेडी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेडियां बांधती हैं। इसी प्रकार जीव के शुभ-अशुभ कर्म उसे बांधते हैं।
२०२. तम्हा दु कसीलेहि य,
रायं मा कुणह मा व संसग्गं। साहीणो हि विणासो,
कुसील-संसग्ग-रायेण॥
अतः (परमार्थतः) दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग। क्योंकि कुशील के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है।
२०३. वरं वयतवेहि सग्गो,
मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं।। छायातवट्ठियाणं,
पडिवालंताण गुरु-भेयं॥
व्रत व तप आदि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नरकादि के दुःख उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहना रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं अच्छा है। .
२०४. खयरामर-मणुय-करंजलि
मालाहिं-च संथुया विउला। चक्कहररायलच्छी,
लब्भई बोही ण भव्वणुआ॥
शुभ कर्म से विद्याधरों, देवों तथा मनुष्यों की करांजलि-बद्ध स्तुतियों से स्तुत चक्रवर्ती सम्राट् की विपुल राज्यलक्ष्मी उपलब्ध हो सकती है, किन्तु संबोधि प्राप्त नहीं होती।
२०५. तत्थ ठिच्चा जहाठाणं,
जक्खा आउ-क्खए चुया। उति माणुसं जोणिं,
से दसंगेऽभिजायए॥
(शुभ कर्म के उदय से देवलोक में उत्पन्न जीव) वां अपनी शील-आराधना के अनुरूप स्थानों में रहते हुए आयु-क्षय होने पर वहां से च्युत होते हैं, फिर मनुष्य योनि को प्राप्त कर दशांग भोग सामग्री से युक्त होते हैं। .