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________________ समणसुत्तं ६७९ अ. २ : मोक्षमार्ग २०६. भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं॥ जीवन-पर्यंत अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर पूर्व __पुठ्वं विसुद्धसद्धम्मे केवलं बोहि बुझिया॥ जन्म में आकांक्षारहित तप करने वाले होने के कारण विशुद्ध बोधि का अनुभव करते हैं। २०७. चउरंगं दुल्लहं मत्ता, संजमं पडिवज्जिया। ___ तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए॥ चार अंगों (मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा तथा वीर्य) को दुर्लभ मानकर वे संयम स्वीकार करते हैं। फिर तपश्चर्या से कर्म के सब अंशों को धुन कर शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं। रत्नत्रय सूत्र (व्यवहाररत्नत्रय) रत्नत्रय सूत्र २०८. धम्मादी सहहणं, सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं। चिव तवंसि चरिया, ववहारो मोक्ख-मग्गो ति॥ धर्म आदि (छह द्रव्य) का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तप में प्रयत्नशीलता सम्यक् चारित्र है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग है। २०९. नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सहहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई। मनुष्य ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से विशुद्ध होता है। २१०. नाणं चरित्त-हीणं, लिंग-ग्गहणं च दंसण-विहीणं। . संजम-हीणं च तवं, जो चरइ निरत्थयं तस्स॥ (एक दूसरे से शून्य होकर वे अर्थ-साधक नहीं होते।) चारित्र के बिना ज्ञान, सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र का स्वीकार और संयम विहीन तप का आचरण करना निरर्थक है। २११: मादंसणिस्स नाणं, असम्यक्त्वी के सम्यक् ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के नाणेण विणा न हुंति चरण-गुणा। बिना चारित्र-गुण नहीं होते। अगुणी व्यक्ति की मुक्ति - अगुणिस्स णत्थि मोक्खो, नहीं होती और अमुक्त का निर्वाण नहीं होता। . नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥ २१२. हयं णाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगलो डड्ढो, धावमाणो य अंधगो॥ क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ है। जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल गया और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल गया। २१३. संजोअ सिद्धीइ फलं वतंति, नहु एग-चक्केण रहो पयाति। ___ अंधो य पंगू य वणे समेच्चा, ते संपउत्ता णगरं पविट्ठा। संयोग के सिद्ध होने से ही फल की प्राप्ति बताई गई है। वन में पंगु और अंधे-दोनों मिले और वे पारस्परिक सहयोग से नगर में प्रविष्ट हो गए।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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