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आत्मा का दर्शन ६८०
खण्ड-५ निश्चय रत्नत्रय
निश्चय रत्नत्रय २१४. सम्मइंसण-णाणं,
सब नयों के पक्षों (एकांगी दृष्टिकोणों) से रहित एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। अनेकांत दृष्टिकोण ही समयसार (आगम या आत्मा का सव्व-णय-पक्ख-रहिदो,
सार) है। केवल वही सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् ज्ञान की भणिदो जो सो समयसारो॥ संज्ञा को प्राप्त होता है।
२१५. सण-णाण-चरित्ताणि,
सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि,
अप्पाणं जाण णिच्छयदो॥
साधु को दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सतत आसेवन (अभ्यास) करना चाहिए। तुम जानो-निश्चय नय से आत्मा ही सम्यग् ज्ञान, आत्मा ही सम्यग् दर्शन और आत्मा ही सम्यक् चारित्र है।
२१६. णिच्छय-णयेण भणिदो, तेहि तेहिं सम
अप्पा । _ण कुणदि किंचि वि अन्नं,
ण मुयदि सो मोक्खमग्गो ति॥
जो आत्मा इन तीनों (सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र) से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ नहीं करता और न कुछ छोड़ता है, उसी को निश्चय नय से मोक्षमार्ग कहा गया है।
२१७. अप्पा अप्पम्मि रओ,
सम्माइट्ठी हवेइ फुड जीवो। जाणइ तं सण्णाणं,
चरदिह चारित्त-मग्गु त्ति॥
(इस दृष्टि से) आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दष्टि होता है। जो आत्मा को यथार्थ रूप में जानता है वही सम्यग्ज्ञान है, और उसमें स्थित रहना ही सम्यक् चारित्र है।
२१८. आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्ते य।
आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे॥
आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात् ये सब आत्म रूप ही हैं।
सम्यक्त्व सूत्र २१९. सम्मत्त-स्यण-सारं,
मोक्ख-महारुक्ख-मूलमिदि भणियं। तं जाणिज्जइ,
णिच्छय-ववहार-सरूव-दो-भेयं॥
- सम्यक्त्व सूत्र रत्नत्रय में सम्यक्त्व ही श्रेष्ठ है और इसी को मोक्ष रूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार रूप में दो प्रकार का है। .
२२०. जीवादी-सहहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
ववहारा णिच्छयदो, अप्पा णं हवइ सम्मत्तं॥
व्यवहारनय से जीव आदि तत्त्वों के श्रद्धान को तीर्थंकरों ने सम्यक्त्व कहा है। निश्चय नय से आत्मा ही सम्यक्त्व है।
२२१. जं मोणं तं सम्म, सम्म तमिह होइ मोणं ति।
निच्छयओ इयरस्स उ,सम्म सम्मत्त-होऊ वि॥
निश्चय से जो मौन (आत्म ज्ञान) है वही सम्यक्त्व है और जो सम्यक्त्व है वही मौन है। जो निश्चय सम्यक्त्व के हेतु हैं, वे भी व्यवहार नय से सम्यक्त्व हैं।