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________________ संबोधि १६९ ॥ व्याख्या ॥ यह जीव-जगत बहुत विविधता को लिए हुए हैं। इसे देखकर एक जिज्ञासु व्यक्ति के मन में जिज्ञासा होना असहज नहीं है। वह देखता है एक जीव कीट है, पतंग, चूहा, ऊंट है, गधा है, मनुष्य है, पशु-पक्षी, वनस्पति है - यह ऐसा विभाजन क्यों है ? कौन इनको बनाने वाला ? इस सबका कारण क्या है ? किसी के पास भौतिक संसाधनों की प्रचुरता है, किसी के पास नहीं है ? मेघ की आशंका का निर्मूलन करने के लिए भगवान् महावीर ने बड़े तथ्यपूर्ण और वास्तविक स्थिति का चित्रण करते हुए कहा - मेघ ! इस सबका कारण कर्म है। आस्रव कर्म आगमन का मार्ग है। कर्म को आत्मा के साथ जोड़ने बाली कड़ी आस्रव है। आत्मा के शुभाशुभ भाव बाहर स्थित कर्म परमाणुओं को भीतर खींचते हैं। उन कर्मों के कारण ही यह सारी विविधता है। यह स्वयं जीवकृत है। जीव का जैसा भाव होता है वैसा ही कर्म का आकर्षण होता है। वे कर्म विपाक - फल रूप जब प्रकट होते तब गति, चिंतन, क्रिया-कलाप वैसा ही बन जाता है। कर्मों के क्षीण होने से चेतना का विकास होता है और कर्मों के उपचय से ह्रास होता है। सद्गति, दुर्गति का कारण कर्म ही है। अच्छे कर्मों का अच्छा फल हैं, उनके उदयकाल में व्यक्ति - जीव को अनुकूल सामग्री मिलती है। असत् कर्म के उदय काल में भौतिक ह्रास होता है। अन्य भी अनेक जटिलताएं, कुरूपता, सुरूपता, अनादेयता के पीछे भी शुभाशुभ कर्म का हाथ है। ४०. आवारका अंतरायकारकाश्च विकारकाः । पुद्गलाः • कर्मसंज्ञिताः ॥ प्रियाप्रियनिदानानि, ४९. जीवस्य परिणमेन, अशुभेन शुभेन च । संगृहीताः पुद्गला हि, कर्मरूपं भजन्त्यलम् ॥ ४२. तेषामेव विपाकेन, जीवस्तथा प्रवर्तते। नैष्कर्म्येण विना नैष, क्रमः क्वापि निरुद्ध्यते ॥ ४३. पूर्ण नैष्कर्म्ययोगस्तु, शैलश्यामेव जायते । तं गतो कर्मभिर्जीवः क्षणादेव विमुच्यते ॥ ४४. अपूर्ण नाम नैष्कर्म्य, तदधोपि प्रवर्तते । नैष्कर्म्येण विना क्वापि, प्रवृत्तिर्न भवेच्छुभा ॥ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद १. पूर्ण निरोध की अवस्था । ज्ञान, - पुद्गल आत्मा के कुछ कर्मदर्शन के आवारक हैं, कुछ आत्मशक्ति को प्रतिहत करते हैं, कुछ विकारक हैं-आत्मचेतना में विकृति उत्पन्न करते हैं और कुछ प्रिय-अप्रिय संवेदन के निमित्त बनते हैं। जीव के शुभ और अशुभ परिणाम से संगृहीत पुद्गल 'कर्म' रूप में परिणत होते हैं। कर्म कहलाते हैं। उन्हीं कर्मों के विपाक से जीव वैसे ही प्रवृत्त होता है जैसे उनका संग्रह करता है। नैष्कर्म्य के बिना यह क्रम कभी भी नहीं रुकता। पूर्ण नैष्कर्म्य - योग शैलेशी' अवस्था में होता है। यह अवस्था चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होती है। इसमें जीव मन, वाणी और शरीर से कर्म का निरोध कर शैलेश - मेरु पर्वत की भांति अकंप बन जाता है, इसलिए इसको शैलेशी अवस्था कहते हैं। इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव क्षण में कर्म-मुक्त हो जाता है। पूर्ण योग शैलेशी अवस्था से पहले भी होता है, क्योंकि नैष्कर्म्य के बिना कोई भी प्रवृत्ति शुभ नहीं होती।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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