SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन .. १६८ खण्ड-३ स्वप्न एक मानसिक क्रिया है। वह दृष्ट, श्रुत या अनुभूत वस्तु का ही आता है। जो कभी देखा, सुमा या अनुभव नहीं किया, उसका कभी स्वप्न नहीं आता। स्वप्न संकलनात्मक ज्ञान है। वह सबका यथार्थ नहीं होता। जिसके मन, वाणी और अध्यवसाय पवित्र हैं, जो संवृत आत्मा है, उसके स्वप्न सदा यथार्थ होते हैं। स्वप्न की अयथार्थता के अनेक हेतु हैं। उनमें प्रमुख ये हैं: दुश्चिन्ता, अनिद्रा, मानसिक मलिनता, आसक्ति, अस्वस्थता आदि। पंचतंत्र में बताया है : व्याधितेन सशोकेन, चिन्ताग्रस्तेन जन्तुना। कामार्तेनाथ मत्तेन, दृष्टः स्वप्नो निरर्थकः॥ -रोगी, शोकाकुल, चिंताग्रस्त, कामार्त्त और मत्त व्यक्तियों के स्वप्न अयथार्थ होते हैं। ३४.सर्वकामविरक्तस्य, अवधिर्जायते ज्ञानं, क्षमतो संयतस्य भयभैरवम्। तपस्विनः॥ जो सब कामनाओं से विरक्त है, जो भयानक शब्दों, अट्टहासों और परीषहों को सहन करता है, जो संयत और तपस्वी है, उसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। ॥ व्याख्या ॥ जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान पांच हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इनमें पहले दो ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष हैं और शेष तीन आत्मसापेक्ष। इनको परोक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान भी कहा जाता है। अवधिज्ञान आत्मसापेक्ष है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसका अर्थ है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन मर्यादाओं से रूपी द्रव्यों का ज्ञान करना। प्रज्ञापना सूत्र में इसके विविध प्रकारों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। मेघः प्राह ३५. दृश्यते जीवलोकोऽयं, नानारूपे विभक्तिमान्। मेघ बोला-भगवान् ! यह जीव-जगत् विभिन्न रूपों में नानाप्रवृत्तिं कुर्वाणः, कर्तत्वं कस्य विद्यते॥ विभाजित दिखाई दे रहा है और यह नाना प्रकार की प्रवृत्तियां करता है। इन सबके पीछे किसका कर्तत्व है? यह मैं जानना चाहता हूं। भगवान् प्राह ३६. विभक्तिः कर्मणा लोके, कर्मास्ति चेतनाकृतम्। भगवान् ने कहा-यह सारा विभाजन कर्म के द्वारा निष्पन्न होता चेतना सासवा तेन, कर्माकर्षति संततम्॥ है। कर्म करने वाली है चेतना। यह आसवयुक्त होती है इसलिए कर्मों का आकर्षण सतत करती रहती है। ३७.यथा भावस्तथा कर्म, यथा कर्म तथा रसः। विचारस्तादृगाचारो, व्यवहारोऽपि तादृशः॥ व्यक्ति का जैसा भाव–अंतश्चेतना का परिणाम होता है, वैसा कर्म होता है। कर्म के अनुसार उसका रस-विपाक होता है। रस के अनुसार विचार पैदा होते हैं। जैसे विचार होते हैं, वैसा ही आचार होता है। आचार के अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार फलित होता है। ३८. कर्माणि क्षीणतां यान्ति. विकासो जायते चिदः। तानि प्रबलतां यान्ति, हासस्तस्याः प्रजायते॥ कों के क्षय होने से चेतना का विकास होता है और उनके प्रबल हो जाने से चेतना का ह्रास हो जाता है। ३९.सुचीर्णैः कर्मभिर्जीवाः, विकासं यान्ति बाह्यतः। दुश्चीर्णैः कर्मभिर्जीवाः ह्रासं यान्ति बहिस्तनम॥ सदाचरण से निष्पन्न कर्मों के द्वारा जीव का भौतिक विकास होता है और दुराचरण से निष्पन्न कर्मों के द्वारा उसका भौतिक ह्रास होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy