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________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-३ हाता ॥ व्याख्या ॥ अर्थक्रियाकारित्व पदार्थ का लक्षण है। यदि अक्रिया को हम स्वीकार करें तो फिर वस्तु का उपरोक्त लक्षण कैसे घटित हो सकता है ? गीता का कर्मयोग अनासक्त क्रिया-प्रवृत्ति को भी अकर्म का रूप देता है। शायद उसे भय है कि आत्मा फिर सर्वदा निष्क्रिय न हो जाए। लेकिन थोड़ी गहराई पर उतरने से ऐसा नहीं होता। प्रवृत्तियां द्विमुखी होती हैं-बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। अंतर्मुखी क्रिया का प्रवर्तन प्रतिक्षण चालू रहता है। वह आत्मा की पूर्ण शुद्धावस्था में भी रुकता नहीं। आत्मा बाहरी क्रियाओं से निष्क्रिय हो, अंतरंग में सक्रिय हो जाती है। वहां मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध हो जाता है। आनंद, ज्ञान, दर्शन और चरित्रात्मक क्रियाओं का द्वार खुल जाता है। संन्यास शब्द की भावना ही बहिर्भाव का परिवर्जन है। एक क्रिया से निवृत्त होने का अर्थ है दूसरी में प्रवृत्त होना। राग, द्वेष और मोह की निवृत्ति ही समत्व या अनासक्तता की प्रवृत्ति है। पूर्ण अनासक्ति राग-द्वेष के अभाव के बिना संभव नहीं होती। उसकी मात्रा में तारतम्य हो सकता है। अनासक्ति और मोह का मेल नहीं होता। जैन दर्शन की भाषा में वीतराग-दशा अनासक्त दशा है। वहां राग, द्वेष और मोहात्मक प्रवृत्ति नहीं होती, इसीलिए वह एकांततः सत्कर्म अवस्था है, अशुभ कर्म की सर्वथा निरोधात्मक स्थिति है। लेकिन सत्कर्म की क्रिया से पुण्य कर्म का बंधन वहां भी रहता है। अंतर इतना ही है कि वह बंधन द्वि-सामयिक होता है। सत्कर्म की निवृत्ति की स्थिति में आत्मा पूर्ण अकर्मा होती है। वहां किसी प्रकार का बंधन नहीं रहता। उस स्थिति की क्रिया चिदात्म-स्वरूप है। उस दशा में आत्मा शरीर से सर्वथा विमुक्त हो जाती है। पूर्ण या अपूर्ण निष्क्रियता के बिना कर्म का प्रवाह विच्छिन्न नहीं होता। कर्म-निरोध के लिए सबसे पहले अशुद्ध भावों का निरोध नहीं चाहिए। अशुभ की निवृत्ति, शुभ की प्रवृत्ति-उससे पाप कर्म का. बंधन नहीं होता। जितना भी दुःख है वह सब अशुभ भावों का है। महात्मा बुद्ध की दृष्टि में दुःखों की जनयित्री तृष्णा है। तृष्णा का उच्छेद दुःख का . उच्छेद है। तृष्णा अशुभ संकल्पों को पैदा करती है। अशुभ संकल्प से कर्म का प्रवेश होता है और कर्म से दुःख। इस प्रकार ग्रंथिभेद नहीं होता। अशुभ प्रवृत्तियों के अनन्तर शुभ प्रवृत्तियों का निरोध अपेक्षित है। उसका साधन है ध्यान। स्व-द्रव्य (चैतन्य) के अतिरिक्त 'पर' का स्पर्श नहीं करना ध्यान है। इसमें आत्मा के सिवाय और कुछ प्रतिभासित नहीं होता। कर्म-क्षय की यह उच्चतम अवस्था है। इसमें शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों की प्रबल मात्रा में क्षीणता होती है। कर्मों के सर्वथा क्षय होने पर आत्मा स्वभावस्थ हो जाती है। वह पूर्ण निष्कर्मा बन जाती है। लाओत्से कहता है-जो निष्क्रिय है उसे तुम सक्रियता के द्वारा कैसे पा सकोगे? सक्रियता सिर्फ थकाती है, जिससे कि व्यक्ति विश्राम में चला जाए। अंततोगत्वा व्यक्ति को अकर्म होना पड़ता है। वह कहता है-'कुछ मत करो, रुक जाओ।' जो खोजेगा वह खो देगा। अगर पाना है तो पाने की कोशिश मत करो, और जो भीतर ही है उसे पाने के लिए रुक जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। लेकिन सामान्यतया यह बात प्राथमिक साधक के हृदय में नहीं उतरती। वह 'न करने' की कल्पना भी नहीं कर सकता। मनुष्य का संस्कार कुछ न कुछ करने का है। निकम्मा रहना व्यावहारिक जगत् नहीं सिखाता। आध्यात्मिक जगत् में निकम्मा-निष्कर्मा होना महान् दुश्चर तप है। यह अपने आप में महान् सक्रियता है। योग के जितने प्रकार और जितनी विधियां हैं उनका अंतिम परिणाम निष्क्रियता-समाधि है, जहां स्वरूप के अतिरिक्त कुछ अनुभूत नहीं होता। निष्क्रियता का पहला चरण है-मन और इन्द्रियों की सक्रियता को देखो। उन्हें रोको मत। उनके साथ मत बहो। जैसे ही गति शुरू कर दोगे, अपने को भूल जाओगे, होश खो बैठोगे। वह आप पर सवार हो जाएगा, आप उस पर नहीं। समग्र साधना का सार है-स्वयं का मालिक स्वयं होना। । दूसरे चरण में सीखना है-तटस्थ होना। मन में उठने वाले अच्छे-बुरे विचारों-भावों के प्रति प्रतिक्रिया न कर तटस्थ (राग-द्वेष मुक्त) भाव से देखते रहना। सामान्यतया व्यक्ति तटस्थ नहीं रहता। जैसे ही इन्द्रिय विषय प्रतिबिम्बित होते हैं, शब्द, कल्पना या मन का कार्य प्रारंभ हो जाता है। शान्ति-तटस्थता नहीं रहतीं। प्रतिक्रिया की मुक्ति के बिना निवृत्ति संभव नहीं है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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