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________________ संबोधि ४५. सत्प्रवृत्तिं बध्यमानं १७१ अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद प्रकुर्वाणः, कर्म निर्जरयत्यघम्। जो जीव सत्प्रवृत्ति करता है, उसके पाप-कर्म की निर्जरा शुभं तेन, सत्कर्मेत्यभिधीयते॥ होती है और शुभ-कर्म का संग्रह होता है, इसलिए वह 'सत्कर्मा' कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ शुभ विकल्प-दशा में प्रवर्तमान आत्मा सत्कर्मा है। इसमें शुभ कर्म का संग्रह भी होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का निर्जरण भी होता है। कर्म का प्रवाह उसी रूप में प्रवाहित रहे तो कर्म आत्मा से पृथक् नहीं होते। कर्मों की अपृथक्ता से भव-परंपरा का भी अंत नहीं होता। लेकिन सत्प्रवृत्ति में आत्मा की अपूर्व स्थिति बनती है। वहां बद्ध कर्म पृथक् होते हैं, नए कर्मों का प्रगाढ़ बंधन नहीं होता और न उनका लेप ही तीव्र होता है। ज्यों-ज्यों आत्मा उन्नति की ओर अग्रसर होती है त्यों-त्यों कर्म-क्षीणता अधिक होती है और संग्रह कम। इस प्रकार वह सर्वथा कर्म से छूट जाती है। ४६.शुभं नाम शुभं गोत्रं, शुभमायुश्च लभ्यते। ... वेदनीयं शुभं जीवः, शुभकर्मोदये सति॥ शुभ-कर्मों का उदय होने पर जीव को शुभ नाम, शुभ गोत्र, शुभ आयुष्य और शुभ वेदनीय की प्राप्ति होती है। ४७. अशुभं वा शुभं वापि, कर्म जीवस्य बन्धनम्। __आत्मस्वरूपसंप्राप्तिः, बन्धे सति न जायते॥ कर्म शुभ हो या अशुभ, आत्मा के लिए दोनों ही बंधन हैं। जब तक कोई भी बंधन रहता है तब तक आत्मा को अपने स्वरूप की संप्राप्ति नहीं होती। ४८. सुखानुगामि यद् दुःखं सुखमन्वेषयन् जनः। दुःखमन्वेषयत्येव, , पुण्यं तन्न' विमुक्तये॥ क्योंकि सुख के पीछे दुःख लगा हुआ है। अतः जो जीव पौद्गलिक सुख की खोज करता है, वह वस्तुतः दुःख की भी खोज करता है इसलिए पुण्य से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। ॥ व्याख्या ॥ पुण्य मुक्ति का साधन नहीं है। पुण्य का अर्जन करनेवाला छिपे रूप में सुख की चाह रखता है। उसे आत्मसुख प्रिय नहीं है। वह चाहता है भोग। भोग की प्राप्ति बंधनों से विमुक्त नहीं कर सकती। 'पुण्य से वैभव, वैभव से मद, मद से मतिमूढ़ता और मतिमूढ़ता से व्यक्ति पाप में अवलिप्त हो जाता है। इस प्रकार पुण्य की परंपरा दुःख से आकीर्ण है। अंतः आचार्य कहते हैं कि हमें पुण्य भी नहीं चाहिए।' जिसके द्वारा संसार परंपरा बढ़ती है, वह पुण्य कैसे पवित्र हो सकता है? पुण्य की इच्छा वे ही करते हैं जो परमार्थ से अनभिज्ञ हैं। - आचार्य भिक्षु की लेखनी ने इस विषय को बहुत स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-'जो पुण्य की इच्छा से तप करते - हैं, वे अपनी क्रिया को गवांकर मनुष्य जीवन को हार जाते हैं। पुण्य तो चतुःस्पर्शी कर्म पुद्गल हैं। जो उसकी इच्छा करते हैं वे मूढ हैं। उन्होंने न धर्म को जाना है, न कर्म को। पुण्योदय से होनेवाले सुखों में जो प्रसन्न होता है, वह कर्म का संग्रह करता है, अनेक प्रकार के दुःखों में प्रवेश करता है और मुक्ति से दूर हटता है। पुण्य की इच्छा करनेवाला . भोग की इच्छा करता है और भोगासक्त व्यक्ति अप्रकट रूप में नारकीय यातनाओं को ही चाहता है। श्रीमद् जयाचार्य प्रारंभ ये यह प्रतिबोध देते हैं कि पुण्य की कामना मत करो। वह खुजली के रोग जैसा है, जो प्रारंभ में सुखद और परिणाम में भयावह है। स्वर्ग, चक्रवर्ती आदि के सुख भी नश्वर हैं। साधक की दृष्टि सदा मोक्ष या आत्म-सुख की ओर रहे। ____ आगम कहते हैं-इहलोक, परलोक, पूजा-श्लाघा आदि के लिए धर्म मत करो। यही बात वेदांत के आचार्यों ने कही हैं-'मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।' पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति मिलती - है। गीता कहती है-बुद्धिमान् व्यक्ति को सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप)- दोनों का त्याग करना चाहिए। १. यत् यस्मात्। ३. तत् तस्मात्।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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