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________________ प्रायोगिक दर्शन ६०१ दुवालसंगं गणिपिडगं अहिज्जमाणेहिं अण्णउत्थिया अट्ठेहि य......निप्पट्ठपसिणवागरणा करेत्तए । तणं समणा निम्गंथाय निग्गंधीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमट्ठं विणएणं पडिसुणेंति । भगवान महावीर और सद्दालपुत्र ७६. तेण कालेणं तेणं समएणं पोलासपुरं नामं नयरं । तणं से समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पंचसु कुंभारावणसएसु...... विहर | तणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अण्णदा कदाइ वाताहतयं कोलालभंड अंतो सालाहिंतो बहिया नीणेs, नीणेत्ता आयवंसि दलय । तए णं समणे भगवं महावीरे सहालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी - सद्दालपुत्ता ! एस णं कोलालभंडे कहं कतो ? तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी - एस णं भंते! पुव्विं • मट्टिया आसी । तओ पच्छा उदएणं तिम्मिज्जइ, तिम्मिज्जित्ता छारेण य करिसेण य एगयओ मीसिज्जइ, मीसिज्जित्ता चक्के आरुभिज्जति । 'तओ बहवे करगा य वारगा य पिहडगा य घडगा य अघडगा य कलसगा य अलिंजरगा य जंबूलगा य उट्टियाओ य कज्जति । तणं समणे भगवं महावीरे सहालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी - सद्दालपुत्ता ! एस णं कोलालभंडे किं उट्ठाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कार-परक्कमेणं कज्जति, उदाहु अणुट्ठाणेणं अकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं कज्जंति ? तणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महाबीरं एवं वयासी - भंते! अणुट्ठाणेणं अकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कार-परक्कमेणं । नत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कार- परक्कम्मे इ वा । नियता सव्वभावा । अ. १२ : आत्मवाद गणिपिटक का अध्ययन करनेवाले श्रमण निग्रंथ अन्ययूथिकों को अर्थ, हेतु आदि से निरुत्तरित करने में समर्थ हैं। श्रमण निग्रंथ और निर्ग्रथियों ने भगवान महावीर के इस कथन को तहत्ति - ऐसा ही है, कह कर विनयपूर्वक शिरोधार्य किया । पोलासपुर नाम का नगर । श्रमण भगवान महावीर आजीवक मत के उपासक सद्दालपुत्र की पांच सौ दुकानों वाली कुंभकारशाला में ठहरे। सद्दालपुत्र मिट्टी के पात्रों को हवा में सुखाने के लिए बाहर ले जा रहा था। उपस्थानशाला महावीर ने पूछा—सद्दालपुत्र ! ये मिट्टी के पात्र कैसे निष्पन्न हुए हैं ? भंते! सबसे पहले मिट्टी होती है। उसे पानी में भिगोया जाता है। उसके बाद राख और गोबर उसके साथ मिलाए जाते हैं। फिर उसे चाक पर चढ़ाया जाता है। उससे मिट्टी के अनेक प्रकार के पात्र बनाए जाते हैं। सद्दालपुत्र ! ये मिट्टी के पात्र उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम से निष्पन्न होते हैं। अथवा उत्थान यावत् पराक्रम के बिना ही निष्पन्न होते हैं ? भंते! ये अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम से निष्पन्न हैं। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम का कोई अस्तित्व नहीं है । सब भाव नियत हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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