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________________ सुख-दुःख मीमांसा . . जापानमहा सुख क्या है और दुःख क्या है-यह शाश्वत प्रश्न है। मनुष्य पदार्थों के उपभोग में सुख की कामना करता है, वह अवास्तविक है। वास्तविक यह है कि सुख पदार्थों के उपभोग में नहीं। उनके त्याग में है। __ मनुष्य प्रियता में सुख और अप्रियता में दुःख की कल्पना करता है। वह प्रियता और अप्रियता को .. पदार्थों से संबंधित मानता है। यह भ्रम है। प्रियता और अप्रियता पदार्थों में नहीं, मनुष्य के मन में होती है। जिन पदार्थों के प्रति मनुष्य का लगाव है, वहां वह प्रियता की और जहां लगाव नहीं है, वहां अप्रियता की. कल्पना करता है। यह सारा दुःख है। बाह्य पदार्थों के प्रति आसक्ति रहते हए बुद्धि का द्वार नहीं खुलता। विवेक वहीं जागृत होता है, जहां पदार्थासक्ति नहीं होती। मोह के रहते आसक्ति नहीं छूटती और इसका नाश हुए बिना वास्तविक सुख की अनुभूति नहीं होती। इस अध्याय में वास्तविक सुख के स्वरूप और साधनों की चर्चा की गई है। साधक पदार्थों से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता, किन्तु वह पदार्थों के प्रति होनेवाली आसक्ति से मुक्त हो सकता है। यह मुक्ति साधना-सापेक्ष होती है। इस विमुक्त अवस्था का अनुभव ही वास्तविक सुख और आनंद है। मेघः प्राह १. सुखानि पृष्ठतः कृत्वा, किमर्थं कष्टमुद्वहेत्। मेघ बोला-सुखों को पीठ दिखाकर कष्ट क्यों सहा जाए. जीवनं स्वल्पमेवैतत्, पुनर्लभ्यं न वाऽथवा॥ जबकि जीवन की अवधि स्वल्प है और कौन जाने, वह फिर प्राप्त होगा या नहीं? ॥ व्याख्या ॥ दो विचारधाराएं सदा से प्रचलित रही है-अनात्मवादी और आत्मवादी। अनात्मवादी विचारधारा के अनुसार जो कुछ दृश्य है, वही सब कुछ है। उसके आगे-पीछे कुछ भी नहीं है। जीवन दुर्लभ है, अतः इसमें जो कुछ सुख-भोग किया जाए वही सार है। इस विचारधारा ने मनुष्य को पौद्गलिक सुख की ओर प्रेरित किया और मनुष्य ने अपनी सारी शक्ति इसी को जुटाने में लगा दी। फलतः वह पौद्गलिक सुखों के उपभोग से जर्जर होता गया और अंत में उसने देखा कि उसकी अतृप्ति, जो वास्तव में ही दुःख-परंपरा की जननी है, बढ़ती ही चली जा रही है। एक अतृप्ति से अनेक अतृप्तियां बढ़ीं और मनुष्य उन्हीं में भटक गया। दूसरी विचारधारा ने मनुष्य को आत्म-केन्द्रित बनाया और उसे पौद्गलिक सुखों से होनेवाली दुःख-परंपरा का बोध दिया। उसने सोचा- 'खणमेत्त सोक्खा, बहुकाल दुक्खा'-इन्द्रियजन्य सुख क्षणमात्र स्थायी होता है। वह अनंत काल तक दुःखों को बढ़ाता रहता है। इस विवेकचक्षु ने उसमें पौद्गलिक सुखानुभूति के प्रति विराग पैदा किया और वास्तविक सुख जो आत्म-सापेक्ष है, की ओर प्रेरित किया। मेघ साधक था, सिद्ध नहीं। अभी उसमें इन्द्रियजन्य सुखों के प्रति आसक्ति थी। उसने सोचा-'प्राप्त का त्याग और अप्राप्त की आकांक्षा अवास्तविक है। जो प्रत्यक्ष है वह सत्य है, जो परोक्ष है उसमें सत्य का आरोप मृगमरीचिका मात्र है। इसलिए प्रत्यक्ष सुखों को छोड़कर, परोक्ष सुखों की ओर दौड़ते जाना बुद्धिमत्ता नहीं है। उसका 'संशयग्रस्त
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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