SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संबोधि १३९ अ. २ : सुख-दुःख मीमांसा मन भगवान के चरणों में खुलता है। उसने कहा- 'भगवन् ! प्राप्त सुखों को छोड़कर अप्राप्त सुखों के लिए इतने कष्टों को सहन करने में कौन-कौन से साधक तत्त्व हैं ?' भगवान् प्राह २. सुखासक्तो मनुष्यो हि, कर्त्तव्याद् विमुखो भवेत् । धर्मे न रुचिमाधत्ते, विलासाबद्धमानसः ॥ ॥ व्याख्या ॥ भगवान् ने कहा- पौद्गलिक सुखों का उपभोग अतृप्ति को बढ़ाता है। अतृप्त मन कामनाओं के जाल बुनता है। कामनाएं मोह पैदा करती हैं। मूढ़ व्यक्ति में धर्म का निवास नहीं होता क्योंकि उसका मन कामनाओं से अपवित्र जाता है। अपवित्र व्यक्ति में धर्म नहीं ठहरता। 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ' - धर्म पवित्र व्यक्ति में ही ठहरता है। जहां धर्म नहीं रहता, वहां मोह की प्रबलता होती है। मूढ़ व्यक्ति कर्तव्य और अकर्तव्य को नहीं जानता । इस अविवेक से वह एक के बाद दूसरी मूढ़ता करता जाता है और अंत में विषादग्रस्त हो नष्ट हो जाता है। ३. कर्त्तव्यञ्चाप्यकर्त्तव्यं, भोगासक्तो न शोचति । कार्याकार्यमजानानो, लोकश्चान्ते विषीदति ॥ भोग में आसक्त रहने वाला व्यक्ति कर्त्तव्य और अकर्तव्य के बारे में सोच नहीं पाता । कर्त्तव्य और अकर्तव्य को नहीं जानने वाला व्यक्ति अंत में- परिणाम काल में विषाद को प्राप्त होता है। मेघः प्राह सुखं स्वाभाविकं भाति, दुःखमप्रियमङ्गिनाम् । तत् किं दुःखं हि सोढव्यं, विहाय सुखमात्मनः ॥ भगवान् प्राह ५. यद् सौख्यं पुद्गलैः सृष्टं, दुःखं तद् वस्तुतो भवेत् । मोहाविष्टो मनुष्यो हि, सद् तत्त्वं नहि विन्दति ॥ भगवान् ने कहा- जो मनुष्य सुख में आसक्ति रखता है और विलास में रचा- पचा रहता है, उसकी धर्म में रुचि नहीं होती, वह कर्तव्य से भी विमुख हो जाता है। मेघः प्राह ६. को मोहः किञ्च तन्मूलं, को विपाको हि देहिषु । इति विज्ञातुमिच्छामि, चक्षुरुन्मीलय प्रभो ! ॥ मेघ बोला - प्राणियों को सुख स्वाभाविक लगता है, प्रिय लगता है और दुःख अप्रिय । तब सुख को ठुकराकर दुःख क्यों. सहा जाए ? भगवान् ने कहा- जो सुख पुद्गलजनित है, वह वस्तुतः दुःख है, किन्तु मोह से घिरा हुआ मनुष्य इस सही तत्त्व तक पहुंच नहीं पाता। ॥ व्याख्या ॥ वस्तु-जन्य सुख वास्तव में सुख नहीं, सुखाभास है। ज्यों-ज्यों उसका उपभोग किया जाता है, त्यों-त्यों उसके प्रति अनुराग बढ़ता है और उससे कामनाएं कभी तृप्त नहीं होतीं। इसलिए यह आपातभद्र है, परिणामभद्र नहीं। खुजली के रोगी को खुजलाने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु वह परिणाम में सुखावह नहीं होती । वस्तुतः वह दुःखों को जन्म देती है। साधक में पौद्गलिक सुख और आत्मिक सुख के पार्थक्य का स्पष्ट विवेक होना चाहिए। वह न इनकी आकांक्षा करे और न इसमें फंसे। ये दुर्गति के चक्रव्यूह की रचना करते हैं। जिस व्यक्ति में मोह प्रबल होता है, उसी में पौद्गलिक सुखों के प्रति आसक्ति रहती है। ज्यों-ज्यों मोह का विलय होता है, त्यों-त्यों आसक्ति भी विलीन होती जाती है। पदार्थों के प्रति आसक्ति से मोह बढ़ता है और मोह से पदार्थों के प्रति आसक्ति बढ़ती है, इस चक्रव्यूह को वही तोड़ सकता है, जो कामनाओं से विरत है। मेघ बोला-मोह क्या है ? उसका मूल स्रोत क्या है? वह प्राणियों को क्या फल देता है? मैं यह जानना चाहता हूं। प्रभो ! ज्ञानचक्षु को उद्घाटित करें। 'मेरे आप
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy