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________________ आत्मा का दर्शन १४० खण्ड-३ भगवान् प्राह ७. चिद्विकारकरो मोहः, अज्ञानं मूलमिष्यते। सम्यक्त्वञ्चापि चारित्रं, विमोहयति संततम्॥ भगवान् ने कहा-मोह वह है, जो चेतना को विकृत बनाता है। उसका मूल है-अज्ञान। उसका विपाक है-सम्यक्त्व और चारित्र को सतत विमूढ बनाए रखना। . ॥ व्याख्या ॥ चेतना को विकृत करने वाला कर्म है-मोह। उससे व्यक्ति पागल की भांति चेष्टा करता है। जैसे पागल व्यक्ति संज्ञा-शून्य होता है वैसे ही मोह- ग्रस्त व्यक्ति भी विवेकशून्य होता है। अहंकार और ममत्व ये मोह की ही अवस्थाएं हैं। इस मोह ने जगत को अंधा बना रखा है। 'न मैं और न मेरा' यह मंत्र हाथ लग जाए तो मोह का संसार उजड़ सकता है। यथार्थ 'मैं' अहं को भूलकर नकली 'मैं' को पकड़कर अपने आपको धोखा दिये जा रहा है। जो अपना नहीं है उसे अपना मानकर व्यर्थ संताप और यातना उठा रहा है। संयोग और वियोग के दुश्चक्र में कभी हंसता है, कभी रोता है, कभी कुछ करता है और कभी कुछ। यह सब मोह का प्रतिफल है। अज्ञान-स्व-बोध के अभाव के कारण मोह की जड़े जमी हुई हैं। अज्ञान तम है। उसमें कुछ दिखाई नहीं देता। प्रकाश की किरण प्रस्फुटित होने पर ही तम का नाश होता है, वैसे ही ध्यान की प्रकाश रश्मियों से मोह का पर्दा हटता है। यथार्थ दृष्टि और यथार्थ आचरण-ये दोनों इसी मोह के कारण विकृत होते हैं। अज्ञान से यहां ज्ञान का अभाव अभिप्रेत नहीं है, आत्मबोध का अभाव अभिप्रेत है। ८. दृष्टिमोहेन मूढोऽयं, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते। दर्शनमोह से मूढ बना हुआ मनुष्य मिथ्यात्व को प्राप्त होता मिथ्यात्वी घोरकर्माणि, सृजन् भ्राम्यति संसृतौ॥ है। मिथ्यात्वी घोर कर्मों का उपार्जन करता हुआ संसार में : परिभ्रमण करता है। . ९. मूढश्चारित्रमोहेन, रज्यति द्वेष्टि च क्वचित्। चारित्र-मोह से मूढ बना हुआ मनुष्य किसी पर राग करता है रागद्वेषौ च कर्माणि, स्रवतस्तेन संसृतिः॥ और किसी पर द्वेष करता है। राग-द्वेष से कर्म का आत्मा में आस्रवण होता है और उससे संसार-जन्म-मरण की परंपरा चलती है। ॥ व्याख्या ॥ मोह-कर्म की वर्गणाएं आत्मा के सम्यग् दर्शन और सम्यग् चारित्र को प्रभावित करती हैं। उसकी प्रबल उदयावस्था में आत्मा में न सम्यग् दर्शन होता है और न सम्यग् चारित्र। अथवा मोह की सघनता में विचार और आचार पवित्र नहीं रह सकते। विचारों की अपवित्रता से असत्य के प्रति आग्रह बढ़ता है, सत्य में अविश्वास प्रबल हो उठता है। दुराग्रह से मिथ्यात्व प्रबल हो जाता है। उस व्यक्ति में अनेक प्रकार के मिथ्यात्व आविर्भूत होते हैं, जैसे १. एकांतिक मिथ्यात्व-आत्मा अनित्य ही है, आत्मा नित्य ही है, आदि-आदि। २. सांशयिक मिथ्यात्व-आत्मा है या नहीं, स्वर्ग है या नहीं। ३. वैनयिक मिथ्यात्व-सभी धर्म समान हैं, दूध-दूध एक है-चाहे फिर वह आक का हो या गाय का। ४. पूर्वव्युत्याहिक-जो स्वयं ने मान लिया, उसी को अंतिम सत्य मानना। ५. विपरीतता-चेतन को जड़ और जड़ को चेतन मानना। ६. निसर्ग मिथ्यात्व-जन्मान्ध की भांति तत्त्व-अतत्त्व से अपरिचित। ७. मूढ़ दृष्टि-सत्य और असत्य के निर्णय में असमर्थता। राग-द्वेष की विनिवृत्ति चारित्र का अर्थ अपने में स्थित होना है। जहां किंचित् मात्र भी राग-द्वेष की अभिव्यक्ति है, वहां विशुद्ध आत्मा का परिज्ञान नहीं होता।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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