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संबोधि
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अ. २: सुख-दुःख मीमांसा चारित्र मोह का उदय आत्म-स्थिति का बाधक है। आत्म-स्थित व्यक्ति बाहरी पदार्थों पर न अनुराग करता है। और न द्वेष । द्वेष का हेतु मोह है। मोहाविष्ट व्यक्ति सही तत्त्व को जानता हुआ भी उसका आचरण नहीं कर सकता । तथ्य ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की घटना से स्पष्ट होता है
यह
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मुनि चित्त के पास आया। मुनि ने सोचा - 'यह भोगासक्त है। यह कर्तव्य अकर्तव्य से विमुख ही नहीं, कर्तव्य - भ्रष्ट भी है। मैं इसे जागृत करूं।' मुनि ने उसे भोग - विरक्ति की प्रेरणा दी। ब्रह्मदत्त ने कहा - 'प्रभो! मैं जानता हूं कि भोग अशाश्वत है। मनुष्य इनसे मुक्त नहीं हो सकता। वह इनको बढ़ाता है और दुःख का संग्रह करता है मेरा कैसा व्यामोह है कि मैं धर्म को जानता हुआ भी काम भोगों में मूर्च्छित हो रहा हूं।'
राग-द्वेष का प्रवाह कर्म की सृष्टि करता है। कर्म युक्त आत्मा जन्म-मरण की परंपरा को छिन्न नहीं कर पाती ।
१०. यथा च अण्डप्रभवा बलाका,
अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च ।
एवञ्च मोहायतनं हि तृष्णा,
मोहश्च तृष्णायतनं वदन्ति ॥
११. रामश्च दोषोऽपि च कर्मबीजं,
कर्माऽथ मोहप्रभवं वदन्ति । दुःखं च जातिं मरणं वदन्ति ॥
कर्माऽपि जातेर्मरणस्य मूलं,
१२.दुःखं हतं यस्य न चास्ति मोहो,
मोहो तो यस्य न चास्ति तृष्णा । तृष्णा हता यस्य न चास्ति लोभो,
लोभो हतो यस्य न किञ्चनास्ति ।
जैसे बलाका अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है।
राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म मरण को दुःख कहा गया है।
जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया और जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया।
|| व्याख्या ||
'मोहायतन' का अर्थ है - मोह की उत्पत्ति का स्थान । मोह की जड़ तृष्णा है। तृष्णा का अर्थ है - प्राप्त के प्रति असंतोष और अप्राप्त की आकांक्षा । तृष्णा मोह को सदा हरा-भरा रखती है। संसार के सभी पदार्थों पर काल का प्रभाव पड़ता है, किन्तु तृष्णा सदा तरुण रहती है। वह कभी जर्जर नहीं होती। जिसने तृष्णा को जीत लिया, वह सर्वजित् है ।
मोह बढ़ता है। जब मोह प्रबल होता है, तब
मोह और तृष्णा का अविनाभाव संबंध है। तृष्णा बढती है, तब तृष्णा भी प्रबल होती है। इसके साथ-साथ राग और द्वेष भी बढ़ते हैं। राग और द्वेष इसी के बीज हैं। सारे दुःखों की उत्पत्ति इनसे होती है एक बार श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- 'पार्थिव विश्व के सभी प्राणी इच्छा-राग और द्वेषवश संसार के आवर्त में फंसे पड़े हैं।' राग-द्वेष कर्म को उत्पन्न करते हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं। कर्म ही जन्म-मरण की परंपरा के मूल हैं जन्म-मरण ही दुःख है दुःखोत्पत्ति के कारणों की विद्यमानता में दुःख का अंत नहीं होता । दुःखों का अंत मोह के मूलोच्छेद से ही संभव हो सकता है।
मोह का सर्वथा नाश होने पर राग-द्वेष का मूलोच्छेद हो जाता है। तृष्णा नष्ट हो जाती है। तृष्णा के अभाव में दुःख नष्ट हो जाता है। तृष्णा का जन्मदाता लोभ है। लोभ सभी पापों का निमित्त और सद्गुणों का विनाशक है। अलोभ का अर्थ है आकिंचनता जिसका अपना कुछ भी नहीं वह अकिंचन है। आकिंचन्य की अवस्था में होनेवाला आनंद अनिर्वचनीय होता है वह आत्म-गम्य है। एक योगी ने कहा है
अकिञ्चनोऽहमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिभवत् । योगिगम्यमिदं प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥