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________________ आत्मा का दर्शन १४२ खण्ड-३ अपने आपको अकिंचनता की अनुभूति में रख। तीन लोक का अधिपति हो जाएगा। यह परमात्मा का योगिगम्य रहस्य तुझे बताया गया है। मेघः प्राह १३.ज्ञातो मोहप्रपञ्चोऽयं, ज्ञातं दुःखस्य कारणम्। मेघ बोला-मैं मोह के प्रपंच को जान चुका हं और दुःख का कथमुन्मूलितं तत् स्याद्, ज्ञातुमिच्छामि संप्रति॥ मूल कारण मोह है, यह भी जान चुका हूं। प्रभो! उसका उन्मूलन कैसे हो? अब मैं यह जानना चाहता हूं। ॥ व्याख्या ॥ किसी वस्तु-विषय को जान लेना अलग बात है कितु उसका परिशोधन करना तथा व्यवहार में आचरण करना अलग बात है। ज्ञान और क्रिया दोनों की संगति होने पर ही कार्य की सिद्धि होती है। इसलिए कहा है-'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' बंधन मुक्ति का ज्ञान और उस दिशा में कर्म करना ही मुक्ति का उपाय है। मेघ को मोह के विषय में जानकारी हो गई, वह समझ गया कि मोह का कितना फैलाव है और वह अपने जीवन को कैसे प्रभावित करता है, किन्तु उसका उन्मूलन कैसे किया जाए ? इस प्रक्रिया से वह अनभिज्ञ है। अतः उसके नाश की प्रक्रिया के विषय में वह जानना चाहता है। भगवान् प्राह १४.रागंच दोषं च तथैव मोहं, भगवान् ने कहा-राग, द्वेष और मोह का मूलसहित उन्मूलन ___उद्धर्तुकामेन समूलंजालम्। चाहने वाले मनुष्य को जिन-जिन उपायों का आलंबन लेना ये येऽप्युपाया अभिसेवनीयाः, चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूंगा। तान् कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्वम्॥ १५. रसाः प्रकामं न निषेवणीयाः, रसों का अधिक मात्रा में सेक्न नहीं करना चाहिए। वे प्रायः प्रायो रसा दृप्तिकरा नराणाम्। मनुष्य की धातुओं का उद्दीप्त करते हैं। जिसकी धातुएं उद्दीप्त दृप्तञ्च कामा समभिद्रवन्ति, होती हैं, उसे काम-भोग सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष द्रुमं यथा स्वादुफलं विहङ्गाः॥ को पक्षी। ॥ व्याख्या ॥ मोह का उन्मूलन अनेक साधनों से होता है। उसमें पहला साधन है-आहार-विजय। स्वास्थ्य का संबंध मन और भोजन दोनों से है। कहा जाता है कि नब्बे-प्रतिशत बीमारियां मन में उत्पन्न होती हैं। चिंता, ईर्ष्या, भय, उद्वेग, क्रोध, अहंकार, प्रतिशोध आदि दूषणों से मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। इनसे आक्रांत मन दूषित रहता है। वह अनिष्ट कल्पनाओं का ताना-बाना बुनता रहता है। वह कहीं स्थिर नहीं रहता। मानसिक रोगी में विशुद्ध प्रेम और पवित्रता का अभाव रहता है। अस्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का विकास निषिद्ध नहीं है किन्तु उत्कृष्ट साधना के लिए शारीरिक संस्थान भी अपेक्षित है। अस्वस्थ शरीर मन को भी अस्वस्थ बना देता है। एकाग्रता की साधना में स्वस्थ मन जितना अपेक्षित है, उतना ही स्वस्थ शरीर भी अपेक्षित है। यह ऐकांतिक सत्य नहीं है, फिर भी शरीर की स्वस्थता के लिए आहारविवेक परम आवश्यक है। 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन'-इसमें बहुत कुछ सचाई है। आहार शरीर और मन दोनों को प्रभावित करता है। असात्त्विक आहार से उत्तेजना बढ़ती है और इससे मन भी प्रभावित होता है। खाद्य-संयम के तीन पहलू हैं : १. खाने के पदार्थों की संख्या में कमी करना। २. अति-आहार का वर्जन करना। ३. कामोद्दीपक पदार्थों के सेवन का वर्जन करना।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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