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________________ आत्मा का दर्शन ७४ खण्ड-२ तहवि ण सक्का ताहे णउले विउव्वति। ते नेवलों का निर्माण किया। वे तीक्ष्ण दाढों से महावीर तिक्खाहिं दाढाहि दसति। खंडखंडाइं च अवणेति। को काटते और मांस के टुकड़े ले जाते।। पच्छा सप्पे विसरोससंपुन्ने. उम्गविसे । विषैले और क्रोधी सर्यों का निर्माण किया। वे उग्र डाहजरकारए। विष थे। शरीर में दाहज्वर पैदा करने वाले थे। तेहिवि ण सक्का पच्छा मूसए विउव्वइ, ते चूहों का निर्माण किया। वे अपनी तीक्ष्ण दाढ़ों से तिक्खाहिं दाढाहिं दसंति। खंडाणि य अवणेत्ता । महावीर को काटते। मांस निकाल देते और शरीर पर तत्थेव वोसिरंति मुत्तपुरिसं। तो अतुला वेयणा। मल-मूत्र विसर्जित कर देते। महावीर को इससे अतुल वेदना हुई। जाहे ण सक्का ताहे हत्थिरूवं विउव्वति। तेण हाथी का निर्माण किया। हाथी ने सूंड में पकड़ कर हत्थिरूवेण सोंडाए गहाय सत्तट्ठतले आगासे महावीर को आकाश में सात-आठ तल ऊपर उछाला, उविहित्ता पच्छा दंतमुसलेहिं पडिच्छति। पुणोऽवि दंतमूसल से पकड़ा और फिर भूमि पर गिराया। पहाड़ से भूमीए ओविंधति। चलणतलेहिं मंदरगरुएहिं भारी-भरकम पांवों से रौंदा। मलेति। जाहे ण सक्का ताहे हत्थिणियारूवं विउव्वति। हथिनी का रूप बनाया। हथिनी ने सूंड और दांतों से ताहे हत्थिणिया सुंडएहिं दंतेहिं विंधति फालेति य। महावीर को बींधा, चीरा, मूत्र विसर्जित किया और उस पच्छा कातितेण सिंचति। तंमि य मुत्तचिक्खल्ले मूत्र कीचड़ में पांवों से रौंदा। खारे पाडेत्ता चलणेहिं मलेति। जाहे ण सक्का ताहे पिसायरूवं विउव्वति.....तेण पिशाच का रूप बनाया। उपसर्ग करने लगा। उवसग्गं करेति। जाहे ण सक्का ताहे वग्घरूवं विउव्वति। सो व्याघ्र का रूप बनाया। दाढ़ों और नखों से महावीर दाढाहि य नक्खेहि य फालेति, खारकाइएण य को विदारित करने लगा और फिर क्षारयुक्त मूत्र विसर्जित सिंचति। कर दिया। जाहे ण सक्का ताहे सिद्धत्थरायरूवं विउव्वति। अपने लक्ष्य में सफल न होने पर उसने राजा सिद्धार्थ सो कट्ठाणि कलुणाणि विलवति-एहि पुत्तगा! का रूप बनाया और हृदयविदारक रुदन करने लगा-पुत्र! विभासा, मा उज्झाहि। आओ! हमारा रुदन सुनो। हमें मत छोड़ो। ताहे तिसला विभासा। फिर त्रिशला का रूप बनाकर निवेदन किया। जाहे ण सक्का ताहे सूतं। किह? सो ततो रसोइए का रूप बनाया। शिविर की रचना की। खंधावारे विउव्वति। सो परिपेरंतेसु आवासितो। महावीर के चारों ओर अपना आवास बना लिया। तत्थ सूतो पत्थरे अलभंतो दोण्हवि पादाण मज्झे । रसोइए को खाना बनाने के लिए इधर-उधर पत्थर वज्जग्गिं जालेत्ता पायाण उवरि उक्खलियं काउं नहीं मिला तो उसने महावीर के दोनों पैरों के मध्य तीव्र पयइओ। अग्नि जलाई। उस पर पात्र रखकर भोजन पकाने लगा। जाहे एएणऽवि ण सक्का तओ पक्कणं विउव्वति। चंडाल का रूप बनाया। महावीर की भुजाओं, गले सो ताणि पंजरगाणि वाहासु गलए य कन्नेसु य एवं कानों में पक्षियों के पिंजरे लटका दिए। पक्षी चोंचों से ओलएति। ते सउणा गातं तुंडेहिं खायंति विधंति य महावीर के शरीर को काटते, बींधते और वहीं मलमूत्र सन्नं काइयं च वोसिरंति। विसर्जित कर देते। पच्छा खरवायं विउव्वति। जेण सक्को मंदरोवि प्रचंडवात का निर्माण किया। ऐसी प्रचंडवात जो मेरु चालेउंन पुण सामी चलइ तेणुविहित्ता उव्विहित्ता पर्वत को हिला सके। पर महावीर विचलित नहीं हुए तो
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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