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________________ संबोधि ३३५ अ. १३ : साध्य-साधन-संज्ञान लोगों के पास हृदय है पर शायद ही कोई अनुभव करता हो। बस, यही आश्चर्यजनक घटना है। 'हेलन कीलर' का आशय है-मनुष्य अपने सेंटर (केन्द्र) अदृश्य से परिचित नहीं है। ___दृष्ट का आकर्षण व्यक्ति को मूढ़ बना देता है। जो बाहर में उलझ जाए वही मूढ़ होता है, भले, चाहे वह विद्वान् हो या अविद्वान्। वस्तुएं जब व्यक्ति को पकड़ लेती हैं। तब कैसे वह अदृष्ट को खोज सकता है। महावीर कहते हैं-दृश्य जगत ही सब कुछ नहीं है। दृश्य जगत की उपादेयता अदृश्य के होने पर ही है। इन्द्रियां, मन अदृश्य की शक्ति के बिना व्यर्थ हैं। इन्द्रिय जगत के पीछे उनका एक संचालक है। उसे भूलना ही संसार है। साधक दृष्ट में विरक्त हो और अदृष्ट में अनुरक्त हो, दृष्ट से वियुक्त हो और अदृष्ट से संयुक्त हो, दृष्ट में अज्ञ हो और अदृष्ट में विज्ञ हो-इसी से जीवन में एक नया आयाम खुल सकता है। ११.श्रमणो वा गृहस्थो वा, यस्य धर्मे मतिभवत्। ___ आत्माऽसौ साध्यते तेन, साध्ये कृत्वा स्थिरं मनः॥ जिसकी मति धर्म में लगी हुई है, वह श्रमण हो या गृहस्थ, साध्य में मन को स्थिर बनाकर आत्मा को साध लेता है। ॥ व्याख्या ॥ आत्मा की जब आत्मा में स्थिति हो जाती है, तब उसका कार्य सिद्ध हो जाता है। इसका अधिकारी मुमुक्षु है। मुमुक्षुभाव की जिसमें जितनी प्रबलता होती है, वह उतना ही आत्मा के निकट पहुंच जाता है। मुमुक्षु के लिए जाति, वर्ण, क्षेत्र आदि की कोई मर्यादा नहीं है। चाहे गृहस्थ हो या साधु, जो संयम के मार्ग पर बढ़ रहा है, जिसका मुमुक्षाभाव प्रज्वलित है, वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है। • भगवान महावीर इतने उदारचेता थे कि उन्होंने लक्ष्य-सिद्धि की बात किसी वेश, लिंग या व्यक्ति से नहीं जोड़ी। उन्होंने स्पष्ट कहा-'चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी, चाहे जैन हो या जैनेतर, चाहे स्त्री हो या पुरुष-सब मुक्त हो सकते हैं, यदि वे अनुत्तर संयम का पालन करते हैं।' _ आत्मा सबमें है, किन्तु उसके होने का अनुभव सबको नहीं है। जिसमें अनुभव है, आत्मा का जन्म वहीं है। जो उसे प्रकट करने में उद्यत होता है वही साधक होता है। फिर वह चाहे श्रमण-मुनि, भिक्षु हो या गृहस्थ। आत्मा का संबंध बाहर से नहीं, अंतर्जागरण से है। उसके लिए अभीप्सा प्रबल चाहिए। महावीर का यही घोष है कि आत्मवान बनो। अपने भीतर है उसे खोजो। अनात्मवान कोई भी हो सब समान है। जिसने आत्मा को साधा, पाया वही धन्यवादाह है। बुद्ध ने आनंद से कहा-'आनंद तू धन्य है, जो प्रधान साधना में लग गया। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे साध्यसाधनसंज्ञाननामा त्रयोदशोऽध्यायः।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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